Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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अनगारधर्माम वर्षिणीटीका अ.२ स. ४ विजयतस्कर वर्णनम् रूपेषु 'विहुरेसु' विधुरेषु व्याकुलावस्थारूपेषु 'वसणेसु' व्यसनेषु-विपत्सु 'अब्भुदएस्सु' अभ्युदयेषु राज्यलक्ष्म्यादिप्राप्तिरूपेषु 'उत्सवेसु' उत्सनेषु विवाहादिप नङ्गरूपे 'पपवेनु' प्रमो'-पुत्रादिजन्मोत्सवेषु 'तिहिमु' 'तिथिमसांवत्सरिकादिरूपासु 'छणेसु' क्षणेषु आनन्दजनकव्यापार रूपेषु 'जन्नेस' यज्ञेषु नागाद्युत्मवेषु पधणीसु' पर्वणीषु-कार्तिकपूर्णिमादिपर्वतिथिषु 'मत्तपमत्तस्स' मत्तप्रमत्तस्य तत्र 'मन' उन्मत्तः 'पात्त' प्रमत्तः-प्रमादवान् याप्स नह्य 'विक्वित्तस्स' विक्षिप्तस्य पयोगविशेषेण भ्रान्तचित्तस्य 'वाउलस्स' चातुलम्य वातरोगयुक्तस्य अन्यमनस्कस्य वा 'मुहियस्त' सुखितस्य' मसलेन्द्रियानुकलविषयप्राप्नत्वात्सुखमनस्य 'दुखि यस्स' दुखितम्य इष्ट वियोगानिष्टसंयोगादिना दुःखनिमग्नस्य 'विदेसत्थस्स' विदेशस्थस्य परदेशस्थितस्य 'विपवसियस्स' विप्रोपितस्य-इष्टजनवियोगिनः इत्यादि बहुजविहरेम) व्याकुल अवस्था में होता था (बरणे मु) फिती और विनि से ग्रस्त होना था उस समय में तथा (अब्भुदरसु) राज्यलक्ष्मी आदि को माप्तिरूप उत्सवों में (उस्सवेसु य पसवे सुय तिही य छणेसुय जन्नेसु य पवणीसु य) विवाह आदि प्रसंगो में पुत्रादि जन्मोत्सवों में सांवत्सरिक तिथियों में, आनंद जनक व्यापाररूप क्षणों में नागादि उत्सवरूप यज्ञों में कार्तिक पूर्णिमा आदिरूप पर्वतिथियों में. (मत्त-पमत्तस्स विक्खित्तस्स बाउ. लस्स य मुहियास य दुक्खियस्स य विदेतत्थस्ल य विष्पवसियम्स य) जय कोई जन मत्त हो जाता था प्रमादवशंगत हो जाता था, प्रयोग विशेष से भ्रान्त चित्त बन जाता था, वातव्याधि से युक्त हो जाता था। या अन्यमनस्क हो जाता था, सकल इन्द्रियों के अनुकूल विषयों की प्राप्ति से आनन्द युक्त बन जाता था इष्ट पियोग अनिष्ट संयोग आदि से दुःख(वसणेसु) मा माइतमा इसायो रडतो, ते समये तेभ (अध्भुदएसु) Narय सभी वगैरेनी प्राति३५ उत्सवामi (उस्सवेसु य पसवेसु य तिहीमु य छणेसु य जन्नेस य परणीत य) वन वगैरेनी प्रसनमा, पुत्र वगेरेना जन्मीસોમાં, સાંવત્સરિક તિથિમાં, આનંદની ક્ષણેમા, નાગ વગેરેના ઉત્સવ રૂપ यज्ञोमांति पूनम वगेरे ३५ ५५ तिथियोमा (मत्त मतस्स विक्खियस्सउवा लस्स य महियस्स य दुक्खियस्स य विदेसत्थस्स य पयत्तस्स विखयम्स विप्पवासियम्स य) જ્યારે કે માણસ ગાડો થઈ જતે, પ્રમાદી થઈ જતો, (તત્ર મંત્રના) પ્રયોગ વિશેષથી ભ્રાંતચિત્ત થઈ જતો, વાતના રોગથી પીડિત થઈ જતે, શૂન્ય મનસ્ક થઈ જતે, બધી ઈન્દ્રિયોને સુખ પ્રાપ્તિ થાય એ સંગ થતા જ્યારે કેઈ આનંદ મગ્ન થઈ જતે, ઈષ્ટ વિગ તથા અનિષ્ટ સંગ વગેરેથી દુખી થઈ જતો, પરદેશમાં