Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 734
________________ ७१६ माणे हिय साहायएणं चंपा ज्ञाताधर्मकथा मन्त्री मूलम्---तएणं से मऊर पोयए जिणदत्तपुत्तणं एगाए चप्पु. डियाए कयाए समाणीए णंगोला भंगसिरोघरे सेयावंगे अवयारियपइन्नपक्खे उक्खित्तचंद काइय कलावे केकाइय सयाणि विमुचमाणे णच्चइ। तएणं से जिणदत्तपुत्ते तेणं मऊरपोयएणं चंपाऐ नयरीए सिंघाडग जाव पहेसु सहएहिय साहस्सिएहिय सयसाहस्सिएहिय जयं करेमाणे बिहरइ । एवामेव समणाउसो जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा पव्वइए समाणे पंचसु महत्वएसु छसु जीवनीकाएसु निग्गंथे पावयणे निस्संकिए निखिए निवितिगिच्छे से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं जाव वीइ वइस्सइ। __ एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं नायाणं तच्चस्स अज्झयणस्स अयमहे पन्नत्ते, तिबेमि ॥ सू. १६॥ टीका--'एणं से मऊरपोयए' इत्यादि 'तएणं' ततस्तदनन्तर खलु 'से' म मयरपोतको जिनदत्तपुत्रेण सार्थवाहेन 'एयाए एकस्यां 'चप्पुडियाए रहित यावत् एक ही चुटकी में सैंकडों बार नृत्य और केकारव करते हुए देखा तो देख कर वह बहुत हर्पित एवं संतुष्ट हुआ और बाद में उसने उन लोगों के लिये जीविका के योग्य प्रीतिदान देकर यावत् उन्हें विसर्जित कर दिया। । मुत्र १५ ॥ 'तएणं से मयूरपोयए इत्यादि। टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (से मऊरपोयए) वह मयूरपोतक (जिनજવાન થયેલું, અને એક જ ચપટી સાભળી સેકડો વાર નાચતું તેમજ ટહૂકતું જોયું ત્યારે જઈને તેને ખૂબજ હર્ષ થયે અને તે સંતુષ્ટ થયું ત્યાર પછી જિનદર મોરને ઉછેરનારાઓને યેગ્ય પ્રીતિદાન આપીને તેઓને જવાની આજ્ઞા કરી. સૂ. ૧૫ तरण से मऊरपोयए' इत्यादि । टा-(नए ण) त्या२ ५७ (से मऊर पोयए) भानु परयु (जिनदत्तपुत्तोण) नहत्तर (एगाए चप्पुडियाए कयाए समाणीए) मे यपटी 434 पर

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