Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका. अ २ सू. ५ धन्यासार्थवाहीविचार' आध्यात्मिक आत्मनि विचारः यावत् समुदपद्यत-अहं खलु धन्येन सार्थ वाहेन साढे बहूनि वर्षाणि तावत-बहुवर्षपर्यन्तं शब्दस्पर्शरसरूपात्मकान् मानुष्यकान् कामभोगान् पच्चणुभवमाणी' प्रत्यनुभवन्ती परिसुञ्जाना विहरामि-तिष्ठामि किन्तु नोचैव खलु अहं दारकंवा दारिकां वा प्रजनयामि, तत्-धन्याःखलु ता अम्बा यावत् मुलब्धं खलु मानुष्यकं जन्मजीवितफलं तासामम्बानां यासां मन्ये निजककुक्षिसम्भूताःस्तनदुग्धलुब्धा मधुरसमुल्लापका 'मम्मणपजंपियाई' मम्मणप्रजल्पिता:- 'मम्मण' इति सवलत् प्रनल्पितं येषां ते 'तथा थणमूलकखदेमभागं अभिसरमाणाई स्तनमूलका देश भागमभिमरन्त:- रतनमूलात्-स्तनमूलभागात् कक्षदेशरूवे अज्झथिए जाव समुपजित्था) इस प्रकार यह आध्यात्मिक यावत मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि (अहं) मैं (धन्नेण सत्थवाहेण सद्धिं) धन्य सार्थवाह के साथ (बहूणि) बहुत वर्षों से (सदफरिसरसगंधरुवाणि माणुसगाई कामभोगई पच्चणुभवमाणी विहरामि) शब्द, स्पर्श, रस, गंध,
और रूप स्वरूप मनुष्यभव संबन्धी काम भोगों को भोग रही हुई हु। (नो चेव णं अहं दारगं वा दारिगां वा पयायामि) परन्तु अभी तक मेरे न लडका ही हुआ है और न लडकी ही (तं धन्नाओ णं ताओ अम्भयाओ जाव मुलद्रेणं माणुस्सए मण्णे जम्मजी वियफलेतासिं अम्मयात्रो) अतः मैं उन माताओं को धन्य मानती हु, उन्हीं का जीवन सफल समजती हु, और यह मानती हूं कि उन्हीने अपने मनुष्य भव सम्बधी जन्म का और जीवन का फल पाया है। (जासि णियगकुन्छिसंभूयाईथणदुद्धलुद्धयाई महुरसमुल्लावगाई मम्मणयं पियाई थणमूलकवरखदेमागं धन्य साथ वाडनी साथे (बहणि वासाणि) महुवर्षाथी (सदफरिसरसगंध. रूवाणि माणुस्सगाई कामभोगाई, पच्चणुभवमाणी विडसामि) શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, ગંધ અને રૂપના મનુષ્યભવના કામગ ભેગવી રહી છું. (नो चेव णं अहं दारगं वा दारिगां वा पयायामि) ५९ मत्या सुधी भारे पुत्र हैं, पुत्री थयुनथी. (तं धन्नाओणं ताओ अम्मयाओ जाव सुलद्रेणं माणुस्सए मण्णे जम्मजीवियफले तासि अम्मयाओ) ते भातासाने धन्य सभा છું, તેમના જીવનને જ સફળ માનું છું, કે જેમને મનુષ્યભાવના જન્મ भने पनन सय ५० भन्या छ (जासि णियगकुच्छिसंभूयाई थण दुद्धलुद्धयाई महुरसमुल्लावगाई मम्मणपयं पियाडं थणमूल-कक्खदेसभागं अभिसरमाणाई