Book Title: Fool aur Parag Author(s): Devendramuni Publisher: Tarak Guru Jain GranthalayPage 17
________________ फूल और पराग राजा ने एक व्यंग्यपूर्ण हंसी के साथ कहा - " पण्डित | वस्तुतः तुम दरिद्र ही हो, इसीकारण दो मोहरों के लिए इतने चिन्तित हो गये, क्या मेरे खजाने में मोहरों की कमी है, वहाँ तो उसके अम्बार लगे हुए हैं ।" पण्डित ने गम्भीर होकर कहा - "महाराज ! मुझे मालूम है आपके राज्यकोष में मोहरों की कमी नहीं है, पर क्या वे न्याय और नीति से प्राप्त ही हैं ? नींव में डालने के लिए न्याय और नोति से प्राप्त मोहरें चाहिए ।" राजा को पण्डित का सत्य कथन विष घंट-सा लगा, परन्तु वह इस समय किसी से भी वाद-विवाद करना नहीं चाहता था । राजा ने अपने मंत्रियों से नीति से प्राप्त मोहरें मांगी। किन्तु मंत्रियों ने स्पष्ट इन्कार करते हुए कहा* राजन् ! हमारे पास न्याय नीति से अर्जित मोहरें कहाँ हैं ? हमारे पास जो भी धन है, वह तो आपके द्वारा ही प्राप्त है । न्याय और नीति से प्राप्त मोहरें तो आपको किसी सच्चे धर्मनिष्ठ व्यक्ति के पास ही मिल सकती है ।" राजा ने जानना चाहा कि मेरे राज्य में ऐसा कौन व्यक्ति है, जो धर्मनिष्ठ हो । सभी ने एक स्वर से सेठ धर्मपाल का और कहा - " राजन् ! सेठ धर्मपाल सच्चे धन से भी अधिक धर्म उनको प्यारा है । प्रारण से भी अधिक प्ररण उनको प्रिय है ।" नाम बताया धर्मात्मा हैं । Jain Education Internationa For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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