Book Title: Fool aur Parag
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 121
________________ १०८ फूल और पराग अव मेरी आशा पूर्ण होने जा रही है, मैं उसका ठाट से पुत्रोत्सव मनाता, पर खेद है कि उसका मुंह देखने के लिए भी इस समय उपस्थित न रह सकूंगा । प्रभा ने ज्यों ही यह बात सुनी त्योंही उसके आँखों के आगे अंधेरा छा गया। आकाश घूमने लगा, पैरों के नीचे की जमीन खिसकने लगी तथापि उसने अपना सारा सहास बटोर कर कहा - नाथ ! चिन्ता न कीजिए ! दुःख तो इन्सान की परीक्षा के लिए आता है। आग में तपकर ही सोना चमकता है, पत्थर पर घिसकर ही चन्दन महकता है । ये दुःख की घड़ियां भी शीघ्र चली जायेंगी। यदि आपको यहां रहने से कष्ट होता हो तो आप प्रसन्नता से व्यापार के लिए विदेश चले जाइए । मेरी चिन्ता न कीजिए और न भावी पुत्र की ही । 7 रजनीकान्त -- प्रभा ! तुम वस्तुतः भारत की वीरांगना हो । तुम्हारे साहस और धैर्य ने मेरे मन में अभिनद चेतना का संचार किया है। मैं आज ही रात को यहां से जाना चाहता हूँ । तुम्हें किसी भी वस्तु की आवश्यकता हो तो मेरे मित्र किशोर को सूचित कर देना । व्यापार चलने पर मैं तुम्हें समय समय पर मनिआर्डर आदि से पैसा भेजता रहूँगा । रजनीकान्त आधी रात में नगर को छोड़कर चला गया । वह सीधा ही बम्बई पहुँचा । भाग्य ने साथ दिया, उसने अच्छा पैसा कमाया। उसकी इच्छा अमेरिका जाकर व्यापार करने की हुई । वह अमेरिका पहुँच गया । निरन्तर Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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