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फल और पराग पर भी आश्चर्य हो रहा था कि यह भी बड़ा विचित्र स्वभाव का है जो राजा को पूर्व सूचित कर चोरी करता है।
सेठ उज्जनी पहुंचा, चोर का सन्देश राजा को कहा।
जिस रात्रि को चोर आने वाला था उस दिन राजा विक्रम ने कहा-अन्य किसी को आज पहरा देने की आवश्यकता नहीं है। आज नगर का पहरा मैं स्वयं दूंगा। रात होने पर राजा ने चोर का वेश बनाया और दक्षिण दिशा की ओर जो द्वार था उसके बाहर जंगल में जाकर बैठ गया।
आधी रात होते ही चोर कालसिंह आया । रास्ते में बैठे हुए व्यक्ति से पूछा-तुम कौन हो ? बैठे हुए व्यक्ति ने धीरे से कहा-मैं चोर हं चोरी करने के लिए उज्जैनी में जाना चाहता हूँ पर राजा के भय से जा नहीं पा रहा हूँ । कालूसिंह ने कहा—मित्र घबरा मत ! मेरे साथ चल । जो मैं धन चुराकर लाऊंगा उसमें से आधा हिस्सा तुझे भी दे दूंगा । वह कालुसिंह के पीछे-पीछे चल दिया। कालुसिंह ने नगर में प्रवेश किया, पर कहीं पर भी पुलिस का पहरा नहीं था।
कालसिंह ने किसी सेठ की ऊँची हवेली देखी, साथ वाले व्यक्ति को वहीं पर बिठाकर वह हवेली में गया। पाँच मिनिट बाद वह पुनः खाली हाथ लौट आया । चोर वेशधारी राजा विक्रम ने पूछा-आप खाली हाथ कैसे लौट आये, क्या यहाँ पर कुछ भी धन आपको नहीं मिला?
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