Book Title: Fool aur Parag
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 116
________________ चोर नहीं देवता १०३ मूठ ही मुझे बना रहें है। उसने फिर गर्जना की, क्यों तुम मुझे भी ठगना चाहते हो ? सेठ ने दृढ़ता के साथ कहा- "मैं कभी किसी को ठगता नहीं और न कभी झूठ बोलता हूं । मैं जैन श्रावक हूं मेरा नाम धनपाल है। देखो, इस लकड़ी में ये चार रत्न हैं । सेठ ने लकड़ी को खोलकर बताया। चोर सेठ को सत्यनिष्ठा देखकर चकित हो गया। वह सेठ के चरणों में गिर पड़ा । मैंने तुम्हारे जैसा साहसी और सत्यनिष्ठ श्रावक नहीं देखा। मुझे आपके रत्न नहीं चाहिए, यह लकड़ी भी आप लेजाइए । परन्तु कृपा कर बताइए कि इस समय आप कहां जा रहे हैं ? सेठ–मैं उज्जैनी जा रहा हूँ, मुझे कोई आवश्यक कार्य है। चोर-सेठ आप मेरा भो एक काम करें। उज्जैनो के राजा विक्रम को कहें कि चोर कालसिंह आज से तीन दिन बाद दक्षिण के द्वार से रात को बारह बजे चोरी करने के लिए आयेगा। राजा जो भी बंदोबस्त करना चाहें सहर्ष कर सकता है। सेठ ने कहा-मैं आपका सन्देश महाराजा विक्रम को कह दूंगा । सेठ आनन्द से उज्जैनी को ओर बढ़ा जा रहा था। मन में विचार उठ रहे थे कि मेरी सत्यनिष्ठा ने मुझे बचा लिया। यदि मैं धन के लोभ से मिथ्या बोलता तो चोर मुझे परेशान भी करता और करोड़ों की कीमत के ये रत्न भी ले लेता। साथ ही उसे चोर Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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