Book Title: Fool aur Parag Author(s): Devendramuni Publisher: Tarak Guru Jain GranthalayPage 37
________________ २४ फल और पराग कर अन्य स्थान पर शराब नहीं पीऊँगा । मुझे मालूम है कि तू वैश्यागामी है, पर यह प्रतिज्ञा ग्रहण कर कि वैश्यालय के अतिरिक्त कहीं पर भी वैश्याओं को बुलाकर वासना पूर्ति नहीं करूँगा।" सोहन ने देखा, पिताजी ने सभी बातें मेरे मन के अनुकूल कहीं हैं। किसी में भी कार्य करने की इन्कारी नहीं है। उसने सहर्ष पिता की अन्तिम सीख को स्वीकार कर लिया। __ इतने दिन तो सोहन जुआ खेलने के लिए बाहर जाया करता था, पर प्रतिज्ञाबद्ध होने से आज वह बाहर जा नहीं सकता था। उसने अपनी जुआ मंडली को अपने घर पर ही बुला ली। बैठक के रूम में खेल प्रारम्भ हुआ। खेल का रंग धीरे धीरे जमा, खेल पूरी जवानी पर था। तभी सोहन को दृष्टि अपने एक खिलाड़ी मित्र पर गिरी। उसकी आँखों से अश्र छलक रहे थे। सोहन ने बीच में ही खेल को रोक कर पूछा-"मित्रवर। आपकी आँखों में इस समय आँसू कैसे ?" मित्र ने लम्बा निःश्वास छोड़ते हुए कहा-'मित्र सोहन ! तुम्हारे विराट् वैभव को निहार कर मुझे अपने पुराने वैभव की स्मृति हो आयी। एक दिन मैं भी तुम्हारे जैसा हो सेठ था। मेरे घर में भी धन के अम्बार लगे हुए थे। एक से एक सुन्दर भव्य-भवन थे, किन्तु जुए की लत ने मुझे बर्बाद कर दिया। मेरे सभी मकान Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134