Book Title: Fool aur Parag
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 97
________________ फूल और पराग आशा-"च्चू को यह कर्ण कटु आवाज मुझे बिल्कुल पसन्द नहीं है, इस आवज ने तो हमारे घूमने के आनन्द को ही किरकिरा कर दिया है।" - उषा ने कहा-'बहिन ! हमें तो इस लकड़े की आवश्यकता ही नहीं है, क्यों न इसे समुद्र में ही फेंक दिया जाय । वर्षा और भारती ने भी उसके प्रस्ताव का समर्थन किया। लकड़ा समुद्र में फेंक दिया गया। गिरतेगिरते लकड़े में से आवाज निकली।" मैं भीतर बैठा हूँ, मेरी रक्षा करना।" बहुओं ने घूरकर लकड़े की तरफ देखा-" दुष्ट ! यहाँ भी हमारा पीछा नहीं छोड़ा। तेरी यही दशा होनी चाहिए थी।" सागर सागर के भीतर समा गया। Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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