Book Title: Ek Safar Rajdhani ka
Author(s): Atmadarshanvijay
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 13
________________ त्रद्वयकी नगरयात्रा आगे आगे बढ़ती ही रही । थोड़े ही चले होंगे तो वहाँ दूरसे काष्ठकी जालीओंसे बनी हुई अर्धदग्ध विशालकाय कोई शाला दिखनेमें आयी । थोडे नजदीक जाकर संजूको परिचय देते हुए राजु बोला... राजा श्रेणिककी यह हाथी-शाला थी, बराबर देख..., दिखते है न बड़े बड़े आलान-स्तंभ ? हाँ... पर यह जले हुए क्यों दिखते है ? इनके पीछे (छोटा) इतिहास है... सुन... । प्रभु वीर को वंदन करके एकबार चेलणा सहित राजा श्रेणिक, राजमहलकी ओर वापस आ रहे थे। भीषण ठंडीके दिन थे, ऐसी ठंड़ी में भी एक महात्मा खुले शरीर, ठंडा हिमसा पवनके झोकोंके बीच भी कायोत्सर्ग ध्यानमें स्थिर खड़े थे। श्रेणिक और चेलणा दोनोंके मस्तक झुक गये और महात्माकी अनुमोदना करते करते स्वस्थान पर पहुँचे । रात पडी... ठंडी और बढ़ी... अर्धरात्रि में निद्राधीन बनी चेलणाका एक हाथ लिपटी हुई रेशमी रजाईसे बाहर निकल गया। | हाथ एकदम ठंडा हिम जैसा हो गया । खून जम गया । चेलणाने तुरंत ही अपना हाथ अंदर ले लिया। और सोचमें डूब गई । इतने बंद महलमें भी इतनी ठंडी है हाथ भी बाहर रख सकते नहीं... तो वह महात्माका क्या होता होगा ? और यही विचारमें चेलणाके मुखसे स्वाभाविक ही निकल पड़ा... उनका क्या होता होगा ? | इसी समय राजा श्रेणिक भी जागृत थे। उसने सोचा... जरुर, चेलना किसीके प्रेममें डूबी है... और अपने यारकी चिंता कर रही है... हाय रे... धिक्कार है...! श्रेणिकका मन अत्यंत व्यग्र बन गया... प्रभात होते ही चेलना के सतीत्वकी सच्चाइ जानने वह वीरप्रभु के पास जाने लगे। तभी सामने अभयकुमार मिले... पिता श्रेणिकको उसने नमन किया। श्रेणिकने आदेश दिया जा, चेलना सह अंत:पुरको जला दो... अभयने सोचा... राजा,बाजा और बंदर... पिताजीने त्वरित निर्णय ले लिया है परंतु अभी सवाल जवाबका समय नहीं है । अभयकुमारने जाकर अंत:पुरकी बाजुमें रही हुई यह पुरानी हस्ति-शाला को आग लगा दी। इस तरफ श्रेणिकने प्रभुवीरको नमन करते ही तुरंत सवाल किया... प्रभु ! चेलना सती या असती... ? प्रभुने कहा - चेलणा सती भी नही, असती भी नही, पर "महासती' | यह सुनते ही श्रेणीकको चक्कर आने लगा । वह तुरंत घोड़ेपर सवार होकर वापस आये। बीच रास्ते अभयकुमार मिले । श्रेणिकने पूछा-अंत:पुर जला दिया ? हाँ, पिताजी ! जा... साले...! अबसे तेरा मुँह मत दिखाना । अभयको तो यही बातकी इच्छा थी। उसने प्रभुवीरके पास जाकर प्रव्रज्या ग्रहण की। श्रेणिकने जाकर देखा तो अंत:पुर तो सही सलामत खड़ा है... और पासकी पुरानी जर्जरित गजशाला जल रही है। किन्तु अब अभयकुमार वापस मिले वैसा नहीं था क्योंकि अभयकुमारने पहले जब पिताजी के पास दीक्षा लेने की मांग की थी, तब पिताजीने कहा था कि मैं तुझे धिक्कारसे बोलुं कि तेरा मुँह नही बताना, तब तुम दीक्षा ले लेना । और यह घड़ी आ गई । "राजेश्वरी नरकेश्वरी'' राज्यके महारंभ-समारंभ के पापसे बचने महाबुद्धि-निधान, पांचसौ मंत्रीओंके अग्रसर और राजकुमार के जीवन को तिलांजलि देकर सर्वत्यागके पथकी और अभयकुमार का प्रयाण.... - संजू तो यह सब सोचता ही रहा.... an Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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