Book Title: Ek Safar Rajdhani ka
Author(s): Atmadarshanvijay
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 24
________________ श्रेणिक तो यह सुनते ही अवाक् हो गया। इसकी खुल गईं। आज तक बड़े गर्वसे अनाथ कहनेवाला माई का लाल इनको नहीं मिला था । उनकी चेत दिव्यताका संचार हुआ। उसने महात्माके चरण पकड़ लिये । साढ़े तीन रोमराजीमेंसे संवेदना पसार होने लगी। "मेरा वह सच इस प्रकारके मिथ्यात्वको छोडकर "सच्चा वह मेरा". प्रकारके सम्यक्दर्शनका (सत्य अर्थमें जैनधर्मका ब लाभ प्राप्त हुआ। सुदेव-सुगुरु-सुधर्मका वह पक्काम बन गया। अनाथी बोले - हाँ राजन् ! श्रेणिकने कहा - लो, आजसे ही मैं आपका नाथ...। अनाथी बोले - श्रेणिक ! जल्दी मत करो, तुम खुद ही अनाथ हो। श्रेणिकने कहा - मुझे नहीं पहचाना? मैं मगधका सम्राट...! अनाथी बोले - फिर भी अनाथ...। श्रेणिकने पूछा - कैसे ? अनाथी बोले-सुनो... एक दिन मेरी आँखोंमें वेदना उठी... दिनमें तारे दिखा दे ऐसी... कौशांबी नगरका मैं राजपुत्र, स्वर्गका पूरा सुख उतर आया, परंतु चक्षुकी भयंकर वेदनाने नरककी भ्रांति करा दी। सुहाना संसार भयंकर-विचित्र बन चका । राजन ! मांत्रिकों को बुलाया... तांत्रिकोंके द्वार भी खटखटाये । पिताजी, धन्वंतरी वैघोंको बुला लाये... परंतु... सबकुछ निष्फल... असफल... पासमें खड़ी प्राणप्यारी पत्नी बोर आँसू बहाती रही । मा-बाप झुर रहे थे। पूरा कुटुंब शोक-सागरमें डूब चुका था..। समझमें कुछ आया राजन् ! सब कुछ होते हुए भी मैं अनाथ था... मेरी वेदना कोई ले सके ऐसी स्थिति नहीं थी। राजन् ! रोग, बुढ़ापा और मृत्यु... इन तीनों पर जय पाने वाला ही नाथ बन शकता शाम हो चुकी थी। अब घरकी और जानेके लिए। (घोडागाडी) के सिवा और कोई चारा नहीं था । बार्क बहतसे घटनास्थल देवने बाकी थे। टाँगेमें बैठे राजूने संजू को कहा... संजू...! जि खरेखर वास्ताविक अर्थमें स्वोपकार किया है वोही परोपः कर सकते हैं। किसीसे भी न बुझने (रीझने) वाले मगधके सम्राट एक जैन महात्माके दर्शन मात्रसे पानी। हो गया। वह खुश हो गया। अनादिका मिथ्यात्वरूपी पलायन (छू) हो गया। निग्रंथ पंचमहाव्रतधारी महात्म है यह ताकत... जंगलमें रहते हुए भी जगत पर सच्चा उपकार सं महंत ही कर सकते हैं। प्रभु महावीरसे भी पहला (प्रथम) उप श्रेणिक पर अनाथी मुनिका हुआ। महावीरदेव । बादमें मिले। श्रेणिक ! है... ताकत...? जो ना, तो तू नाथ नहीं है । तुम खुद रोग-बुढापा... आखिर मृत्युको परवश है ही। इन तीनों के ऊपर जीत दिलानेवाले महावीर जैसे किसी नाथ की तुझे भी जरूर है ही। और मैंने संकल्प किया... रोग जाय जो आजकी रात... तो संयम स्वीकारूं प्रभात। जय हो, प्रभु वीरकी... मुनि अनाथीकी.. और श्रेणिककी... राजगृही की प्रथम द्वार-यात्रा पूर्ण हुई थी। फिर कभी छुट्टीके दिनमें मिलेंगे। ऐसा संकेत करके दोनों मित्र अपने घरकी । (वापस) फिरे... कोइ शरण - आधार न बन सका। आखिर थककर मैंने महावीरको शरणरूपमें स्वीकारा । सचमुच रात बीती और वेदना चली गई। प्रभात होते ही महावीर को नाथ बना दिया। उनके बताये हए मार्ग स्वीकार लिये। तब अंधेरा भी छा गया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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