Book Title: Ek Safar Rajdhani ka
Author(s): Atmadarshanvijay
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 65
________________ सन्मुख देखनेके लिए विनंती करने लगी। सूर्य धधक रहा था। धधकती शिला पर दोनों महात्माओंका देह सूखे लकड़े जैसा हो गया था... संजू ! धन्ना-शालिभद्रने दीक्षा ली उसके पश्चात् विचरते-विचरते क्रमश: प्रभुके साथमें पुन: एकबार वे जगृहीमें आ पहँचे। दोमासी, तीनमासी,चार मासी उपवास आदि उग्र तपस्या करते दोनोंका शरीर अतिकृश हो गया था। दोनों महात्माओंने वैभारगिरि के ऊपर जाकर अनशन करनेकी प्रभुके पास आज्ञा माँगी। प्रभुने आज्ञा दी और दोनोने यहाँ आकर यावज्जीव आहार-पानीका पच्चक्खाण करके | शयनमुद्रामें ध्यानस्थ बने... _माता भद्रा और बत्तीसों वधूओंसे यह दृश्य देखा नहीं जाता था...वह सीना फटे ऐसे रुदन करने लगीं। इस तरफ राजगृहीमें प्रभु वीर पधारते शालिभद्र मुनि भी साथ ही होंगे ऐसा सोचकर सभी तैयारी करके हर्षाती माता भद्रा, बत्तीस बहओंके साथ प्रभवीरके समक्ष पहँची.नमस्कार करके सविनय उसने प्रभुको पूछा - भगवंत ! धन्य और शालिभद्र मुनि कहाँ है ? भगवंतने फरमाया- संसारसे शीघ्र मुक्त होने वैभारगिरि पर जाकर अभी ही अनशन किया है..... संजय ! फूलकी शय्यामें सोनेवाला कहाँ श्रीमंत शालिभद्र और धधकती शिला पर देहको पिघला देनेवाले कहाँ संत शिरोमणि शालिभद्र! श्रेणिक राजाने आश्वासन देते हुए कहा, हे भद्रे ! हर्षके स्थान में आप रुदन क्यों कर रहे हो..? आपका पुत्र महासत्त्वशाली होनेसे आप ही एक सर्व स्त्रीयोंमें सचमुच पुत्रवती हों। रत्नप्रसू भद्रे ! आपको तो ऐसे पुत्रके लिए गौरव लेना चाहिए। इस प्रकार विविध वाक्योंसे कुछ आश्वासन पाकर माता भद्रा वधुओं के साथ स्वस्थानको वापस लौटीं। दोनों मुनिवर अत्यंत शुभ ध्यानमें काल धर्म (आयुष्य पूर्ण) होते सद्गति और सिद्धिगतिको पाये। दोनों गुणियल महापुरुष गुणीजनोंके मनमें बस गये। भद्रा तो यह सुनकर राजा श्रेणिकके साथ झटपट वैभारगिरि पर पहुँची। संजू ! यह दोनों शिला पर अनशनी दोनों महात्माओंको देखकर माता भद्रा इनको एक बार अपने भोगनिष्ठ बनता है ब्रह्मनिष्ठ : रोमांचक धटना ध ना-शालिभद्रकी वह पवित्रतम शिलाओंकी रजकण आँखों पर लगाकर चिरकाल नमस्कार करते-करते -मित्रबेलड़ी का पर्वतीय आरोहण और आगे बढ़ा। अब तो पर्वत की टोंचपर ही पहुँचना था...देखते-देखते दोनों मित्र आखरी शिखर के नजदी सूरजदादा बादल-संग संताकूकड़ी खेल रहे थे... मित्र-युगलने वेगसे दौड़ते उन बादलोंको भी पकड़ लिया... समझलो कि इनका ही छत्र बनाया। वो धरतीसे ठीक-ठीक ऊँचाई पर आ गये थे। दूर-सुदूर वन-निकुंजोमेंसे मीठे मधुर कोयल रानीके शब्द सुनाई दे रहे थे। स्वाभाविक सौंदर्यका लाभ उठाते और गिरिकंदराओको पसार करते मित्रबंधु एक ऐसे स्थानके पास आ पहुँचे जो जगत्का अलौकिक आश्चर्य था। वहाँ संगमरमरकी नाजुक मगर भव्य रमणीय देरी (मंदिर) थी...पवनसेफर...फर फरकती इसकी वजामेंसे महासंगीत के नाद निकल रहे थे। इस नादमेंसे किसी एक महात्माकी यशोगाथा का सूर गुंज रहा था। 59 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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