Book Title: Ek Safar Rajdhani ka
Author(s): Atmadarshanvijay
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 40
________________ जायेंगे शेणिकने कहा कि अंतरमेंदो अलग बात क्यों भगवंतने कहा कि सूबे जब मुनि को वंदन किया तब वो मनहीमन शत्रुओंके साथ युद्ध कर रहे थे.... और श्रणिक। तुम यहाँ आये तब तक तो वो ऐसे विचारोंमें चढ़ गये कि युद्धमें मेरे सभी शस्त्र खत्म हो गये है। इसीलिए अत्यंत क्रोधांध होकर "मार डालूं... सालेको"....... ऐसी दुष्ट विचारणासे मस्तक परसे मुकुटका घात करने जा रहे हैं... परंतु जैसे मस्तक पर हाथ पहुँचा तब मस्तक तो मुंडित था... तुरंत ही मुनिअवस्थाका रव्याल आया। स्व-निंदा करने लगे... भारी पश्चाताप किया.. फिरसे प्रशस्त (शुभ) ध्यानमें स्थिर हए. इससे तेरे दसरे प्रश्नके समय वह सर्वार्थसिद्ध देवलोक के योग्य हो गये। श्रेणिक और भगवंतकी यह बात चल रही है तब वहाँ ध्यानस्थ प्रसन्नचंद्र महात्माके समीपमें देवदुंदुभि बजी... श्रेणिकने फिरसे प्रश्न किया - प्रभुने फरमाया - प्रसन्नचंद्रराजर्षि ने क्षपक श्रेणीमें चढ़ते अंतिम क्षणोंमें केवलज्ञान पाया है। देवतादि मंगलनाद द्वारा इनकी महिमा मना रहे हैं। वाह..! वाह...! कैसी मनकी गति है... संजूके मुखसे सहसा निकल पड़ा.... हाँ संजू ! राजू बोला - मनकी गति न्यारी है। मन माळवेकी ओर ले जाय....मन मुक्तिमें भी ले जाए । मन महाविदेहक्षेत्रमें ले जाये और मन माघवती (७वीं नरक) में भी ले जाये। पवनसे भी मनकी गति तीव्र होती है। बड़े- बड़े योगिओंको भी मनको वशमें करना मुश्किल बन जाता है। इसलिए ही कहा है कि मन की जीत में जीत है, मन के हारे हार। मन ले जाये मोक्षमें रे, मन ही नरक मोझार। संजूने पूछा - ऋषिमुनि श्मशानको साधना स्थलके रूप क्यों पसंद करते होंगे शजू बोला : क्योंकि साधना के ति इनको नीरव एकांत स्थल ज्यादा अनुकल बनता है। ऐस स्थल या तो श्मशान होता है और या तो जंगल होता है। श्मशानमें तो व्यंतर आदिसे उपसर्ग होने का संभव भी रहा। है... महामुनि तो वह उपसर्गोको भी कर्मनिर्जरामें महा। उपकारक मानते है। इसीलिए वह ऐसे स्थल विशेष पर करते हैं। संजू ! इसमें महान सत्व होना भी जरुरी है। नि। मनवालेका तो काम ही नहीं। यह स्मशान जैसे नमस्व महामंत्र आराधक बाल अमर (कुमार) मुनिका अंति। समाधिस्थल बना. वैसे राजर्षि प्रसन्नचंद्रका स्मारक। बना... कैसी सुंदर सुशोभित लग रही है... काचँके कव सुरक्षित... संगमरमरमें आकर्षक खुदाइ कामवा प्रसन्नचंदजीकी.... पॉव के ऊपर पाँव स्थापित ध्यान मूर्ति....। राजा श्रेणिकने ही यह स्मारक तैयार करवाया। ऐसा लगाता है.... अंधेरा हो चुका था। दोनों मित्रोंने घरकी ओर जाने । लिए टांगागाडी पकड़ी। प्रभातमें (पुन:) शेष नगर-यात्राकी शर्तके साथ दो मित्र घर पहुंचे तब द्वितीय द्वारकी सफल यात्राका पूर्ण संतो । इनके मुख पर तैर रहा था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.oda

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