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दाने ओवारणा लिया। द्वारपर मोतीके स्वस्तिककी श्रेणियाँ भा दे रही थीं। सुवर्णके स्तंभ पर इंद्र-नील मणिके तोरण ल रहे थे। स्थान-स्थान पर दिव्य वस्त्रोंके चंदरवा बँधे थे। री हवेली देवताई सुगंधी चूर्णोंसे महक उठी थी। राजाके मन ह सत्य था या स्वप्न ? वही समझमें नहीं आता था। वह यंके महलको भूल गया और कोई अमरापुरीमें पहुँच गये हो सा अनुभव हो रहा था।
शालिभद्रको मिलनेकी इसकी उत्कंठा बढ़ गई। वह हली मंज़िल पहुँचे... झूलते व चमकीले तोरणोंको देखकर उसको लगाकी शालिभद्र यहाँ ही रहते होंगे... ! वह अंदर माने की तैयारी करते है... वहाँ ही भद्राने कहा - यहाँ तो मारे नौकरोंका आवास हैं... राजा मनमें चमका... बापरे... कर भी ऐसे घरमें रहते हैं... ? ऐसा तो मेरा राजमहल भी नहीं... राजा दूसरी मंजिल पहुँचे। पहली मंजिलसे वहाँ ज्यादा मक थी... राजा अंदर प्रवेशके लिए जा रहे थे। तब कहा या की यह तो हमारी दासियोंका घर है... राजा तो चकाचौंध गया... उसने तीसरी मंजिलकी ओर पाँव रख दिया... उसकी चमक कुछ और ही थी... राजा अंदर जा रहे थे कि हाँ भद्राने रोककर कहा... राजा साहब ! यह तो हमारे हमानोंके रुकनेका स्थान है...।
भद्रा, श्रेणिकको चौथी मंजिलपर ले गई। जहाँ खुदका स था । श्रेणिकके दिलमें तो आश्चर्य पर आश्चर्यका सर्जन देता था। इतनेमें तो श्रेणिककी अंगुठी सरक गई। न जाने तने बड़े महलमें कहाँ जाकर गिरी... खुद राजा और जसेवक इनकी तलाश करने लगे। भद्रको मालूम हुआ... सने तो इससे भी बढ़िया ऐसी कितनीहीं अंगूठीयोंसे भरा सुवर्ण थाल राजा सन्मुख रख दिया। राजा तो देखते ही गया... वह सोचने लगा। दुनियाकी सारी पुण्याई यहाँ ही बसी है ऐसा लगता है...
भद्राने राजाको मखमली सिंहासन पर बैठाया और खुद तवीं मंजिलपर दिव्यभोग-सुखोंको अनुभव कर रहे लिभद्रको बुलानेके लिए गयी।
देव बने शालिभद्रके पिताश्री प्रतिदिन शालिभद्र और की ३२ वधुओंके लिए ३३ भोजनकी, ३३ वस्त्रोंकी और - आभूषणोंकी देवताई पेटियाँ भेजते थे। आज उपयोग की वस्तुएँ दूसरे दिन पास (बाजु) वाले कूड़ेखानेमें डालने में
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82798 आती थी। ऐसे देवताई सुखोंको भोगनेवाले शालिभद्रने कभी भी जमीन पर पाँव नहीं रखा था। वह गर्भमें था तब भद्राने स्वप्नमें शालि यानि चावलके छोड़ोंसे हराभरा खेत देखा था जिससे इसका नाम शालिभद्र रखा गया।
भद्राने आवाज लगाई.. बेटा शालि ! आओ... नीचे आओ, राजा श्रेणिक पधारे हैं...।
शालिभद्रको तो "राजा'' क्या वह भी पता नहीं था। इसने कहा माताजी! कदापि नहीं और आज मुझे क्यों पूछा ? वो किरानेको वखारमें रख दो और मुँहमाँगे दाम दे दो । तब माताने कहा... बेटा ! श्रेणिक वो किराना नहीं है, इन्हें तो अपने राजा कहते हैं अपने मालिक कहते हैं... (वो कहें ऐसे हमें करना) आओ... नीचे आओ... राजाके दर्शन करो और राजाको दर्शन दो... शालिभद्र नीचे आये। उसके कानोंमें कुंडल चमक रहे थे... गलेमें नवसेरा हार था। कांडेमें रत्नबंध था।
राजाने इनको गोदमें लिया... राजाके शरीरकी ऊष्मासे शालिभद्रको पसीना-पसीना हो गया। राजा उसकी सुकुमारताको नीरखता ही रहा... आखिर चूमी भरकर उसको छोड़ दिया । राजाने वहाँसे बिदाई ली... परंतु शालिभद्रको अब चैन नहीं है। मेरे सिर पर भी मालिक !!! खैर अब एक ऐसे मालिक सिरपर रखूँ कि कदापि अन्य कोई मालिकका सहारा लेनेका अवसर ही न आये...
बस संजू ! शालिभद्रने मनही मन महावीरको ही एक मालिक बनानेका निर्णय ले लिया। महावीरके पथ पर जानेके बाद श्रेणिकको भी चरणोंको चूमने आना पड़े... बादमें वह मालिक न रहेगा... |
अपना अटल निर्णय माता और बत्तीस पत्नीयोंको बता दिया। माता मूर्च्छित होकर धरती पर गिरी । बत्तीस पत्नीयाँ भी चौंक उठीं। आँखोमेंसे बूँद-बूँद (जैसे) आँसू गिराने लगी । शालिभद्रने सबको समझाया और रोज एक-एक पत्नीका त्याग करनेका विचार अमलमें रखा।
संजू बोला... राजू ! शालिभद्रका इतना पुण्य कैसे ?
संजू ! पूर्वभवमें गवाल का अत्यंत गरीब बेटा था। उस की हठ पर माता ने एक बार जैसे तैसे खीर बनादी । इतनेमें
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