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पुकारी... घणीखम्मा घणीखम्मा... हे देवानुप्रिय ! आप जय हो... मनुष्यलोकमेंसे आप यहाँ पधारे हैं... हमारे स्वा बनें हैं । आप यह तो बताइये कि आपने कौन-कौनसे पुरा (और पाप) किये थे। जिससे यहाँ आपका अवतरण हुआ.
विश्वास था कि महावीरकी देशनासे हमारे बाप-दादाका चोरीका धंधा टूट जायेगा... बापने आखरी साँस ली। बापसे बेटा सवाया... उस्ताद रोहिणीया चोरने सारी नगरीमें हंगामा मचा दिया। खुद अभयकुमारकी बुद्धि भी इस कार्यमें असमर्थ बन गई। नगरीमें इस चोरने सदैव कहीं न कहीं तो लूटपाट की ही होती। एक बार वह गुफाकी ओर जा रहा था। बीचमें कहीं भगवंत के समवसरणकी रचना हुई थी। प्रभु देशना दे रहे थे। देशना सुनाई नदेइसीलिए दोनों कानोंको अंगुलियोंसे बराबर दबाकर चल (जा) रहा था। अचानक ही पाँवमें काँटा लगा। अब क्या करना? अनिच्छासे भी इसने एक कानमेंसे अंगुली बाहर निकाली और झड़पसे काँटा खींच लिया। परंतु इतनेमें देशना दे रहे प्रभुवीरके चार वाक्य उसके कानोंमें आ
गिरे।
(१) देव भूमिसे चार अंगुल अध्धर रहते हैं।
(२) इनको कभी पसीना नहीं आता।
रोहिणेय...सोचता है...मैं तो नामी चोर था। यहाँ के आ गया । इतनेमें तो उसको प्रभु महावीरदेवके अनिच्छा सुने गये चार वचन याद आये । अरे... मेरी आँखे तो पला मार रही हैं... मुझे पसीना भी हो रहा है। मेरे गलेमें रही पुर। की माला कुछ मुरझाई जैसी दीखती है। और यह सब दे देवियों के पाँव जमीनको स्पर्श कर रहे हैं । नक्की. अभयकुमार द्वारा ही फसानेका यह षड्यंत्र है... "चलो हम भी कम नहीं" उसने तो खुदने किये हुए दान, पुण्य । सत्कार्यों की गिनती करानी शुरू कर दी.. वह पूर्ण हुई। सेवकने कहा - आपने कुछ पाप-कार्य भी किये होंगे न. ना...रे पापकार्य किये होते तो स्वर्गमें मेरा अवतरण के होता? मैंने कुछ पाप किये ही नहीं... अभयकुमारने सा बातें जानी... अनिच्छासे (सबूत बिना) चोरको छोड़ दि. गया... चोर सोचता है... महावीरके चार वचनोंने आजम बचाया... यदि वह सुनने न मिले होते तो मेरी सूलीकी सा निश्चितथी...प्रभुके जबरदस्तीसे सुने चार वचनोंका जो है। उपकार हआ है तो इनके शिष्य बननेमें जीवनकी कौन सफलता बाकी रहे...? वह तो दौड़ा.. प्रभु वीरके चरणों समवसरणकी ओर... वहाँ ही स्थित राजा श्रेणिकके पा चोरीका इकरार किया और अपराधोंकी क्षमाके साथ उस जहाँ-जहाँसे चोरी की थी उसके नाम-स्थान देव अभयकुमारको सुपूर्त की और प्रभुवीरके पास दीक्षा ली।
(३) इनकी फूलमाला मुरझाती नहीं।
(४) इनकी आँखे फडकती नहीं।
हाय... महावीरके वचन कानमें आ गिरे.. | प्रतिज्ञानभंगसे रोहिणेय दु:खी-दु:खी हो गया।
संजू ! इसके बाद रोहिणेय मुनिने एक उपवाससे, मासी तपकी उग्र तपस्या की। और यही वैभारगिरि पर अनः किया। शुभध्यानपूर्वक पंचपरमेष्ठिका स्मरण करते। त्यागकर रोहिणेय मुनि स्वर्गमें गये।
संजू ! महाबुद्धि-निधान अभयकुमारके भी हाथ न । आनेवाला यह कुख्यात चोर कितना उस्ताद होगा ? पर नहीं... एकबार वह अभयकुमारके दावमें आबाद फँसा और पकड़ा गया । मगर साक्षी (सबूत) बिना सजा कैसे करें? आखिर अभयकुमारने उसके ही मुँहसे कबूल कराने के लिए एक युक्ति रची । उसको मदिरासे युक्त भरपूर भोजन कराया... इस दरम्यान सुंदर वस्त्र पहनाकर इसको एक ऐसी हवेलीमें सेवकों द्वारा भेज दिया गया...जहाँ सातवीं मंजिलपर स्वर्गीय माहोल जमा हुआ हो। रत्नजड़ित पलंग परसे रोहिणेयके उठनेके साथ ही कितनी दासियाँ (जैसे देवलोककी देवीयाँ) इसको मोतियोंके अक्षतसे बधाने लगी... सेवकों (जैसे देवताएँ) "घणीखम्मा" "घणीखम्मा" कहने लगे। कितने उसको चामर ढो रहे थे... कितने पंखे झूलाते थे। चारों ओर सुगंध प्रसर रही थी। आँखें मसलते-मसलते रोहिणेय सोचता है... यह क्या? कहाँ पहुँचा मैं ? इतनेमें ही एक सेवक (देव)ने छड़ी
संजू बोला : राजू ! अपनी नगरीका महाउस्तादव भी महामुनि बना... हाँ संजय ! ताकत है... जिनवाणीके शब्दोंकी...
दोनों मित्रोंने... पुन: उपर चढ़ना प्रारंभ किया... था ऊपर चढ़नेके बाद...महामहिम गौतमादिगणधर भगवंतो| देरीओमें रहे स्वर्णमय पुनीत चरणारविंदोंको वंदन किया
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