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जू! मगधसम्राट राजा श्रेणिकका पुण्य-प्रताप मध्याह्न में तप रहा था उस समयकी बात है। कितनेही परदेशी व्यापारीवर्ग रत्नकंबलके व्यापार हेतु
राजधानी-राजगृहीमें आ पहुँचे... । एक रत्नकंबलका मूल्य-सवा लाख सोनैया...
पुत्रवधूओंने स्नानके पश्चात् शरीर पोंछकर उन रत्नकंबला. कूड़खानेमें डाल दिया है। इतनेमें ही राज-महलकी सा करनेवाला एक नौकर रत्नकंबल ओढ़कर कूडा (कचा निकालने आया।
राजाने उसको पूछा... अरे ! यह कंबल कह लाया ?
बाप रे...! संजू बोल उठा... ऐसा उसमें क्या होता है...? राजू बोला : संजू ! ये रत्नकंबल, ठंड़ी में ओढी जाय तो उष्मा प्रदान करें। गर्मीमें ओढ़ी जाय तो ठंडक प्रदान करे और बारिसमें ओढ़ी जाय तो पानीका एक भी बूँद शरीरको नहीं स्पर्शते...।
राजासाहब... ! यह तो कूड़ेखानेके डिब्बे मेंसे मु मिली है। राजासाहब तो आश्चर्यचकित हो गये... उन आश्चर्यका पार न रहा...
संजू : आह...! वाह...! राजाने सभी ही खरीद ली होगी ?
श्रेणिक तो कौतुक से भद्राकी हवेलीपर जान लिए बावरे हो गये। उसने भद्राको अपने आगमनका समा भेजा। भद्राने भी राजा के आनेके मार्गको सुशोभित करने अपने सेवकों को आदेश दिया। इसमें गोभद्रसेठ, । (शालिभद्रके पिता) जिसने प्रभु महावीरके पास चा स्वीकारा था और स्वर्गमें गये थे। उसने अपनी दिव्य सम, द्वारा सुशोभित राजमार्ग पर चार चाँद लगाये।
राजूने कहा : ना, उसने एक भी नहीं खरीदी, राजाने सोचा एक रत्नकंबलखरीद करने से तो सवा लाख सोनामोहर प्रजाके हितके लिए खर्च करूँ तो प्रजा आबाद बने... परंतु संजू ! बादमें चेलणाको जब मालूम हुआ तब उसने कमसेकम (अपने लिए) एक रत्नकंबल खरीदनेके लिए राजाके पास जिद्द पकडी। राजाने सेवक दौड़ाये। वे व्यापारियोंको वापस बुला लाये...। राजाने एक रत्नकंबल माँगी । व्यापारीने कहा सोलह (१६) रत्नकंबल लाये थे सभी ही बिक गईं।
राजा श्रेणिककी सवारी वहाँसे पसार हुई। श्रेणिवा आश्चर्यका पार नहीं। यह वृद्धा कितनी पुण्यशाली है... जिह मार्गोंको ऐसे सुंदर सजाया हैं... उसकी हवेलीतो कैसी होगी ? सोचते सोचते राजा मार्गों पर विविध प्रकारके नाटक-चेत् । देखते माता भद्रा (शालिभद्र) की हवेली पर आ पहुँचे।। सात मालकी गगनचुंबी हवेली थी।
राजाने पूछा : ओह ! किसको बेंची?
व्यापारी बोले आपके ही नगरके शेठाणी भद्राको...
और उसी वक्त बाल-सूर्यकी सवारी के साथ ही और संजूकी घुड़सवारी भी राजधानीके मूर्धन्य श्री शालिभद्रकी उस हवेलीके पास आ पहुँची।
राजाने पूछा : सभी ही इसने खरीद लीं?
व्यापारी बोले : हाँ।
दोनों मित्र वहाँ नीचे उतरे। और हवेलीके सामने देख ही रहे... यह हवेली इन्द्रकी अमरापुरी जैसे ही लग रही ।
राजामनहीमनसोचने लगाएक रत्नकंबल खरीदनेके लिए मेरी हिंमत न चली... और मेरे ही एक प्रजाजनने सभी ही खरीद लीं? वाह ! मेरे राज्यमें ऐसे श्रीमंत पुण्यवंत बसें
दोनो मित्रोंने हवेलीके सामने बैठक जमायी...। संजन इस रंगभरी कहानीकी तंद्रामें ही खो गया।
इसने साश्चर्य राजूको पूछा... फिर क्या हुआ.. राजूने आगेकी बातका प्रारंभ किया।
राजाने व्यापारियोंको बिदाई दी। और सेवकोंको भद्राके यहाँसे एक रत्नकंबल (मूल्यसे) ले आनेके लिए भेजा... | सेवकोने वहां जाकर वापस राजाको बात बतायी...
श्रेणिकको तो मालूम भी न रहा... कि वह हवेलीकेप। पहुँच गये हैं...जो हवेलीके बाह्य रूपरंग भी अनहद है. अंदरमें तो कितनी निराली होगी? राजा प्रवेशद्वार पर पहा ।
राजन ! भद्रामाताने कहलाया है कि मेरी बत्तीस
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