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दोनों हाथ ढींचण पर स्थिर किये और आँखें बंद करके निश्चल । होकर समवसरण घ्यानमें डुबकी लगाने का प्रयल किया। रजत, स्वर्ण और रत्नोंके तीन गढ, (इनकी) ऊपर मणियोंसे युक्त सिंहासन पर प्रभु विराजमान है। बारह पर्षदा विराजित (बैठी) है। प्रभुके देहसे १२ (बार) गुणा ऊंचा अशोकवृक्ष, जो सभीको शीतलता प्रदान कर रहा है। दोनों बाजु इन्द्रों चामर ढो रहे हैं । पैंतीस (३५) अतिशययुक्त (मालकोश रागमें) देशना सुनने के बाद देवांगनाएँ और इन्द्राणियाँ प्रभु के सामने नृत्य कर रही है। पचास हजार केवलीशिष्यों के गुरु गौतमस्वामी, प्रभु महावीरके सन्मुख बाल बनकर उत्कटासनमें नत-मस्तक बैठे हैं। मगधपति श्रेणिक सेवकवत् ।
हाथ जोड़कर प्रभुकी स्तुति करते हुए नजर आ रहा है। दोनों मित्र उसी समयके - समवसरण ध्यानमें खो गये....वे गद्गद बन गये। प्रभु वीरकी यादमें इनकी आँखें चौधार बरस रही... तीर्थ से भी ज्यादा वहाँके वातावरणसे इनके अंग-अंग अति आनंदके स्पंदन युक्त हो गये। अनंती कर्मरज आत्मा परसे गिर रही हो, ऐसा इन दोनों को अनुभव हुआ। और इनके अंतरमें से वीर..... वीरकी सहज ध्वनियाँ उठने लगीं। इस धरणीकी पवित्र रज इन्होंने मस्तक पर चढ़ाई। जब तक वह धरणी दिखाई दी... तब तक अनिमेषदृष्टि से (वह धरती के) दर्शन करते ही रहे। गणधर श्री सुधर्मा-स्वामी की यह निर्वाण भूमिको देखते ही रहे.....।
श्मशान बना स्मारक...
टते वक्त फिर वही नंदिनी वाव आयी । संजूकी नजर उस वावकी बांयीं तरफ गई. २५ कदम दुर एक ऊंचा स्मारक दिखाई दिया। उस स्मारकमें एक
महात्माकी प्रतिमा दिखाई दी। इनके दो हाथ (आकाशकी और) ऊँचे थे। एक पाँव पर वे खड़े थे और इनकी दृष्टि कुछ ऊंचाईपर सूर्य सन्मुखध्यानस्थ अवस्थामें स्थिर थी।
ध्यानमें खड़े थे.... इतनेमें ही यहाँसे राजा श्रेणिक की सवारी निकली... राजा (गुणशील) उद्यानमें प्रभु वीरकी देशना सुनने हेतु जा रहे थे..... इनके एक सैनिक ने दूसरे सैनिकको निंदा करते हुए कहा कि - बेचारे छोटे कुंवरको गद्दी पर बिठा दिया अब इनके राज्यको अपने हाथ करनेके लिए मंत्रीओंने कमर कसी है। प्रसन्नचंद्रने इस बालकको राज्य सौंपकर बिना सोचा काम (गलती) किया है। बालकको और पूरे राज्यको संकटमें डाल दिया है। इन्होंने धर्मकी जगह पर अधर्मका आचरण किया है।
संजूको आश्चर्य हुआ - इसने राजूको पूछा - यह स्मारक किसका है?
राजूने कहा - संजू, प्रसन्नचंद्र राजर्षि ने इसी स्थान पर इसी अवस्थामें केवलज्ञान प्राप्त किया था..। जरा थोड़ी दूर नजर कर... वो श्मशानमें खंडहर दीख रहा है न ? बस, यह श्मशानभूमि ही राजर्षिकी कैवल्यभूमि है। संजू ! किस प्रकारसे प्रशंसा की जाय इस राजधानीकी.... जिसकी श्मशानभूमि भी महात्माओकी कैवल्यभूमि बनी है। यह प्रसन्नचंद्र पोतनपुर नगरके राजा थे। मनोहर व मोहहर ऐसी प्रभु वीरकी वाणी सुनकर वे वैरागी हुए। अपने बाल राजकुमारको राजगदी पर स्थापित करके राज्यका भार मंत्रीयोंको सोंपकर दीक्षा ली। एकबार विहार करते-करते वे इस श्मशानभूमि के पास पाँवके ऊपर पाँच चढ़ाकर... दोनों । हाथ ऊपर करके.... सूर्यके सामने दृष्टि लगाकर कायोत्सर्ग
इस प्रकारके वचनको ध्यानस्थ मुनि प्रसन्नचंद्रने सुनकर सोचा कि... अहो ! जो मैं इस वक्त राज्यको सँभाल रहा होता तो मंत्रिओं को कड़ी शिक्षा दे देता। ऐसे संकल्पविकल्पों के चक्करमें अप्रसन्न मनवाले प्रसन्नचंद्रमुनि, मुनिपनेको भूलकर मनसे ही वह शत्रु बने हुए मंत्रीओंके साथ युद्ध करने लग गये। इसी समय राजा श्रेणिक वीर-प्रभुके पास पहुँचे। और प्रभुको वंदना करके सवाल किया - प्रभु ! अभी रास्तेमें मैंने ध्यानस्थ अवस्थामें (रहे) प्रसन्नचंद्र राजर्षिको वंदन किया है। अगर इस स्थितिमें वो मृत्यु पाएँ तो कौनसी गतिमें जायेंगे? प्रभु बोले - सातवीं नरकमें ! श्रेणिक सोचमें पड गये....थोड़ी देर बाद पक्का करने के लिए फिरसे पूछाभगवन् ! प्रसन्नचंद्रमुनि जो अभी इस समयमें काल करें तो कहाँ जाएँगे? भगवंतने कहा कि सर्वार्थसिद्धि विमानमें
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