Book Title: Ek Safar Rajdhani ka
Author(s): Atmadarshanvijay
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 33
________________ जधानीके अद्यतन महल और प्राचीन महालयों को देखते-देखते मार्ग और राजमार्ग पर से पसार हो रहे अलख के आराधकों की तात्त्विक विचारणा करते करते दोनो मित्र बहुत दुर निकल गये। फिर राजधानीके एक विरव्यात विश्रांति गृहके पास आकर बाहरके ओटले (विरामासन) पर विश्राम लेने बैठे। रा Fran थोड़ी देर मौन छा गया। राजूकी नजर सामनेकी एक चित्रशालाकी ओर गई। जिसमें कितने कला-स्थापत्य सुरक्षित थे। जो कि वह शाला पहलेसे कुछ जर्जरित बनी थी। राजूकी नजर के समक्ष एक बहुत पुराना इतिहास आ रहा था। मौनभंग करते हुए राजूने संजूको कहा- सामने दिखाईं देती चित्रशाला अमरकुमार और महामंत्रके संस्मरणोकी चाड़ी खा रही है। संजूने पूछा इसको क्या संबंध ? - कौन अमरकुमार ? नवकार और राजू बोला- यही तो बात करता हुँ, सुन.... !! यह राजधानीका मालिक (श्रेणिक) अभी मिथ्यात्वी था तबकी यह बात है । किसी भी तरह यह चित्रशालाका बांधकाम नहीं हो रहा था। बांधकाम होता फिरभी टिकता नहीं था । दिनमें बने और रात्रिको टूटे.. ऐसी हालत थी। राजाने ब्राह्मण ज्योतिषीको पूछा- मुख्य जोषीने कहा...... बत्तीस लक्षणा बालककी बलि चढ़ाई जाय और इसका खून नींवमें ड़ालने में आये तो ही चित्रशाला बन पायेगी । .. किन्तु, ऐसा बालक लाना कहाँसे ? राजाने तो नगरमें • ढिढोरा पिटवाया और... जो बालक दे इसके वजन जितनी सुवर्णमुहर देने का भी जाहिर कराया। मगर, खुदका बालक तो सबको पसंद होता है, कौन दे ? आखिर, सात बच्चेवाले और गरीबीसे परेशान एक ब्राह्मण-ब्राह्मणीने अपने छोटे बालक अमरको दे देनेका तय किया। इसने राजपुरूष समक्ष बात रखी। राजपुरुष अमरको लेने आये । छोटा सा यह बालक तो एकदम घबड़ा गया। जीव किसको प्यारा नहीं ? बालक अमरने, माँ-बाप, भाई, बहन, फूफा - फूफी, मामा-मामी...... सभीके पास खूब आजीजी Jain Education International 27 की.... बचाने की विनंति की... मगर कोइ भी संभालने के लिए तैयार नही हुआ। सभीने एक ही बात की... । खुद तेरे माँ-बाप ही तुझे बेचने तैयार हुए है, फिर हम क्या करें ? आखिर आँखोमेंसे आँसु निकालते हुए अमरको उठाकर सेवकजन राजसभामें राजा श्रेणिक के पास ले आये। अमरकुमारने राजा को विनंती की - राजन् ! आप तो प्रजाके रक्षणहार कहलाते हो क्या मुझ जैसे निर्दोष बालककी आप बलि चढ़ाएँगे ! क्या रक्षक ही भक्षक बनेगा ? परंतु राजाको तो ‘चित्रशाला बनाने की' एक ही धुन थी। इसने भी दाद नहीं दी। ब्राह्मणोंने अमरको स्नान कराया, फूलहार पहनाया और टीकी-टपके किये.... और सभाके मध्यमे सुलग रहे अग्निकुंडमें अमरकुमार को उठाकर जैसे ही डाल रहे थे इतनेमें ही आग बुझ गई..... राजा सिंहासन परसे धरती पर गिर गया.... इनके मुँहसे खून बहने लगा। सभी ब्राह्मण भी मूर्छित होकर जमीन पर गिर गये । संजू बोला - यह तो आश्चर्य. चमत्कार.........! गजब का राजूने कहा...... हाँ... नवकार मंत्रके प्रभावसे ही.....। बाल अमर एक बार, पहले जब जंगलमें लकड़ी लेने गया था तब उसको रास्तेमें एक जैन मुनि मिले थे। और अमरको नवकार मंत्र सिखाया था। वह नवकार मंत्र संकटके समय काम आया। अमरको लगा कि अब कोई बचानेवाला नहीं है... तब वह आंख बंद करके भावपूर्वक नवकार मंत्रका रटण करने लगा......और उसमें ऐसा एकाग्र बन गया कि खुदको भूल गया । सब दुःख बिसर गया । बस, फिर तो अदृश्यरूपमें शासनदेवने इसको सहायता की.... नवकारमंत्र इसका रक्षणहार बन गया। - अमरकुमारने दया लाकर नवकार मंत्रसे मंत्रित जल राजा और ब्राह्मणों के ऊपर छिड़का... छिड़कानेके साथ आलस मरोड़ते मरोड़ते सभी खड़े हुए। बिलकुल अच्छे हो गये । राजा और ब्राह्मणोने अमरकुमारके पाँवमें गिरकर (झुककर) क्षमा माँगी। अमरकुमार माफी देते देते बोला.. यह प्रभाव मेरा नहीं, नवकार महामंत्रका है। For Private & Personal Use Only राजाने कहा- अब यह राज्य तुझे देता हूँ। तूने हमें मृत्युसे बचाया है। अमरकुमारने कहा- नहीं, मेरा मन अब www.jainelibrary.org

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