Book Title: Ek Safar Rajdhani ka
Author(s): Atmadarshanvijay
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 36
________________ ध्या होने में अब बहुत देर नहीं थीदोनो मित्र नगरके (दुसरे) दरवाजेके पास आ गये थे। दरवाजे के बाहर एक मनोहर दृश्य उनकी नजरमें आया। अनुचित था। इतना ही नहीं.... आते-जाते सभी मुसा यह वावकी प्रशंसा करने लगे। प्रशंसा सुनकर नंद तो बहु खुश होने लगा। सुविशाल एक पानीका जलाशय था । नाम इसका नंदिनी, इस सरोवरमें राजहंस तीर रहे थे। छोटी - बड़ी मछलियाँ गुलाटें लेती आनंद-प्रमोद मना रही थी। कुछ झुके हुए कमल के पत्तों जैसे श्रमिकोंको आहवान दे रहे थे। सरोवर को स्पर्श करती हुइ वायु तन-मनको शीतलता प्रदान कर रही थी। जलपिपासुलोग तृषाको शांत करके हृदयमें ठंडक महसुस कर रहे थे। (१) सत्संगका अभाव (२) आरंभ-समारंभका दोष (३) स्वयंने बनाई हुई वावकी खुशी और इसका अहंकार । इन्हीं कारणोंसे मृत्यु-समय नंदका जीव वावन जानेसे "मेरी वाव" करते-करते नंद मृत्यु बाद उसी व मेंढक के रूपमें उत्पन्न हुआ। अब तो इसको कोई पहचा भी नहीं। ऐसा नयनरम्य मनोहर दृश्य देखकर संजू के हृदयमें ठंडक छा गई.... श्रम कुछ दूर हुआ। वह बोल उठा - किसने इस जलाशयका निर्माण किया ? राजू बोला.. संजू ! जहाँ जिसकी आसक्ति वहाँ उसकी उत्प स्त्रीमें अति आसक्त मनुष्य, मृत्यु पश्चात् स उदरमें कीडे के रूपसे उत्पन्न हो सकता है। धनमें आर मानव मरकर वनस्पति बनकर धन पर ही अपने मूल फैल है। कंदमूल खानेमें आसक्त मनुष्य मरकर आलू : कंदमूलमेंही उत्पन्न होता है। देवलोककेदेव सरोवरकाप (कानके कुंडलमें जड़ित) रत्नों आदिमें आसक्त बन अपकायया पृथ्वीकायके रूपमें जन्म लेते है। और सदा गवाँ देते हैं। संजू ! यह वावका निर्माता था "नंदमणियार".... इसी नगरका रहनेवाला वह श्रीमंत-गृहस्थ था । आते-जाते साधुभगवंतोके सत्संगसे वह धर्म पाया। श्रावक भी बना। तब तक व्रतधारी बना कि हर पर्वतिथिके दिन वह उपवास-सह पौषध करता था। एकदा इसने पर्वतिथिके दिन उपवास-सह पौषधव्रत किया। कौन जाने संजू ! उन समयमें मुनि भगवंतोंका विहार इस तरफ कम हो गया था। अर्थात् विहारका मार्ग बदल गया। उपाश्रयमें कोई भी मुनि भगवंत हाजिर नहीं। पौषधमें रहे नंद श्रावकको प्रतिक्रमण पश्चात् बहुत ही तृषा लगी। इतनी तषा कि इसका जीव तालूपर चिपक गया। और दान होने लगा। कितनी कोशिशसे जैसे-तैसे रात तो पसार की.... मनुष्य जन्मको खो देनेवाला नंद भी आखिर ही जलाशयमें (आसक्त बनकर) मेंढक हुआ। किन्तु.... पूर्वकृत धर्म-आराधना निष्फल नहीं होती। एकबार राजगृह नगरमें प्रभु महावीर पधारे... जि राजा श्रेणिक आदि वंदनार्थ जा रहे थे। सभीके म "महावीर पधारे - महावीर पधारे" का ही रटण था। सुनते मेंढक बने नंदके जीवको लगा - ऐसे शब्द मैंने सुने हैं... ! मनमें चहल-पहलसे पूर्वभवका ज्ञान हुआ। भव नजर के समक्ष दीखने लगा। सुबह घर जाकर पारणा किया। बादमें "तषा (प्यास) का दु:ख बहुत ही कठिन-भयंकर है" ऐसा जानकर एक बडी वाव (जलाशय)-निर्माण करनेका निश्चय किया। और राजा के पास तुरंत जाकर जलाशय-निर्माणके लिए अनुमति ली। वाव बनानेके लिए सेंकड़ो मजदुर ब कारीगरोंको कामपर लगाया। बहुत आरंभ-समारंभ करने के पश्चात् यह वाव तैयार हई। (वाव यानि चारों और सीडी वाला सरोवर जैसा जलाशय) अर..... र ......र जलाशय के आरंभ-समारंभ दुर्गति.....? धिक्कार.....हो मुझको...! चलो, और कुछ तो भगवंतकी देशना तो सुनें। मेंढकराज तो चले प्रभुकी दे सुनने...। मगर, बेचारे की कैसी दशा? सावधानीसे जा उछलकूद करते हुए जा रहा मेंढक श्रेणिक-राजाके धं पाँव तले कुचलकर मर गया। भगवंतकी देशना सुन उल्लासमें... मरकर वह मेंढ़कमें से देव बना। अरे...! श्रेणिक की सवारी समवसरणमें पहुँचे, इसके पहले ही बना हुआ नंद, प्रभु वीरकी सेवामें उपस्थित हो गया। संजू ! नगरमें पीनेके लिए पानी होते हुऐ आरंभ - समारंभ का पाप करके ऐसा जलाशय खड़ा करना - वह 30 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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