Book Title: Ek Safar Rajdhani ka
Author(s): Atmadarshanvijay
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 27
________________ गधकी राजधानी राजगृहीमें कौमुदी महोत्सव शुरु हो चुका था। नगरके बाहर नदी के किनारे पर मेलेका रंग भी ठाटसे जमा हुआ था । राजा खुद ही जब इस मेले में भाग लेकर आनंद प्रमोद मना रहा हो... तब अन्य राजपरिवार और नगरकी जनताका तो कहना ही क्या ? म लगभग सुबहसे मेलेमें भीड़ रहती और शामको सब लौट आते... इस दरम्यान नगर में शून्यावकाश छाया हुआ रहता । नगरयात्रा के लिए यह मौके का फायदा उठाते पंद्रह दिनके बाद फिरसे मित्रयुगल नगरके राजमार्गकी ओर चल पड़े... इनके मन तत्वकी खोज यही मेले की मौज थी। मित्रयुगलकी द्वितीय द्वार (के ओर) की नगरयात्रा के साथ साथ सूर्य की अपनी रथयात्रा आकाश के मार्ग में आगे बढ़ती रही। हवेली और महलों को पसार करते करते राजू एक महालयके पास आ पहुँचे। यहाँ एक महाश्रावक रहते थे। इनका नाम महाशतक था। सारी नगरीमें धर्मात्मा के रूपमें वे प्रसिद्ध थे। तेरह स्त्रियों के साथ उनका पाणिग्रहण हुआ था। इनके आठ तो गोकुल थे। गोकुल याने क्या ? संजूने पूछा..... राजूने कहा : एक गोकुलमें दश हजार गायें रहती है, ऐसे ८ (आठ) गोकुल के मालिक महाशतक श्रावक थे। इतना होते हुए भी वह एकावतारी (बीच में एक भव करके तुरंत ही मोक्षमें जानेवाले) बन सके । संजूने पूछा- क्या ( इतना ) परिग्रह इनको डुबा न सका ? राजूने कहा :- नहीं, क्योंकि इनको इन परिग्रह पर ममता नहीं थी। थी तो वो भी नहींवत् ...! जो ममतासे चिपक जाते है वही मरते (परेशान होते) हैं.... जो चिपकते नहीं वह बच जाते हैं। संजू ! शायद एक साथ ही आठों गोकुलका अपहरण या नाश हो जाय, तो भी परिग्रह गँवाने के सामने महशतक को दुःख न हो, ऐसी मन:स्थिति इन्होंने प्रभु वीरकी देशना द्वारा तय्यार कि थी। इसीसे कह सकते है कि वह इस परिग्रह पर अत्यंत Jain Education International 21 आसक्त नहीं थे। प्रभु वीरके परम भक्त महाशतकके इतिहासको दोहराते दोनों वहाँसे आगे बढ़े । सुलसा श्राविका का नाम तो संजूने भी सुना था । यह श्राविका की हवेली अब करीब ( नजदीक) आ रही थी। और बातों में डूबे मित्रयुगल कब सुलसाकी हवेली के पास पहुँच गये, इसका ख्याल भी न रहा। अरे संजू ! किस प्रकार प्रशंसा की जाय सुलसा श्राविका की...? त्रिलोकीनाथ प्रभु वीरने भी जिसको धर्मलाभका संदेश भेजा था । वह संदेश सुनने के साथ ही उनके साढ़े तीन करोड रोमरोम हर्षसे नाच उठे... ! जिसके सम्यक्त्व - गुणकी प्रशंसा स्वर्गलोक के स्वामी खुद इंद्र भी किया करता । एक बार हरिणगमेषी देव द्वारा और दूसरी बार अंबड (परिव्राजकके वेशमें) श्रावक द्वारा की गई सम्यक्त्व की परीक्षा में जो अणिशुद्ध सफल बनी थी। और दोनों का सिर झुका दिया था। अपने "नाग" नामक पतिके आग्रहसे महा- मेहनतसे प्राप्त किये दुए, देवअर्पित ३२ (बतीस) पुत्रों, जो श्रेणिक के वफादार अंगरक्षक बने थे। और युद्धमें एक साथ बतीस (३२) 'कट के मर गये, ऐसा समाचार सुनकर भी जो स्वस्थ रह सकी थी... और बोल उठी थी.... 'ललाटमें लिखा हुआ ऋणानुबंध पूर्ण हुआ.... शोक करने से अब वह वापस मिलनेवाले नहीं..! जिनधर्म और प्रभुवीर प्रति अपार श्रद्धान्वित और इस भरतक्षेत्रमें आनेवाली (अगली) चोबिसीमें निर्मम नामके पंद्रहवे तिर्थंकर बनकर मोक्ष पद पानेवाली सुलसा श्राविका को भावभरी वंदना अर्पण करते राजू और संजूने अगले घटनास्थल की ओर प्रयाण किया । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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