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पसंद आ गया। इसने रोज एक सामायिक करनेका निश्चय किया । पुणियाकी वह दो मुँहसे प्रशंसा करने लगा... |
लाखों गाँवोका आधिपत्यवाला पूरा मगध देश मिलता है। कौन ऐसा लाभ जाने दे भला? मगर, संजू...! पुणियाने सस्मित श्रेणिक से कहा राजन् ! सर्वज्ञ कथित यह सामायिक धर्मका फल किसीको दिया नहीं जाता। (दे नहीं सकते ।) यह तो खुद स्वअनुभवका परमतत्त्व है। यदि सामायिक दे सकते है तो एक नही अनेक (सामायिक) दिनेकी मेरी तैयारी है। राजन् ! जिनोपदिष्ट यह सामायिक धर्मको पृथ्वीके एक टुकड़ेसे तोलना ठीक नही ।
तब राजू बोला... संजू ! पुणिया के सामायिक धर्म जैसे ही (इसकी) साधर्मिक भक्ति भी अजोड थी। पुणिया पहले तो श्रीमंत सेठ था। किन्तु प्रभु महावीर की देशनामें एकबार परिग्रहको पापोंका बाप (समान) सुनकर दोनों पति-पत्नी हमेंशा एक समय जितना खा सके इतना ही कमाना ऐसा नियम किया। और सभी लक्ष्मीको सातों क्षेत्रमें दे दिया। वह रोजके दो आना कमाते । इसमें दोनोंका एक समयका भोजन प्राप्त होता । रुईकी पुणी बेचते थे, इसपर इनका "पुणिया" नाम (प्रचलित) हुआ ।
मगधेश्वर ! आपका साम्राज्य मुझे बिल्कुल नहीं चाहिए। परमात्मा महावीरदेवने एक बार देशनामें कहा था कि... कोई व्यक्ति एक लाख खांडी सुवर्णदान प्रतिदिन करे तो भी प्रतिदिन एक सामायिक करनेवाले का पुण्य प्रभाव) अधिक होता है। राजन् ! इस सामायिकधर्मसे पैदा होनेवाली आत्मविशुद्धि ... और आत्मविशुद्धिसे प्राप्त होनेवाला अंतरंग आनंद... और इस आनंदके आगे मगधका साम्राज्य तो क्या सारी दुनियाका साम्राज्य भी तच्छ है। श्रेणिक तो अलख के इस आराधक को देखता ही रह गया। खुद विशाल मगधका स्वामी होते हुए अपनी । प्रजा पुणियाके पास बिल्कुल वामन-सा बन गया और निराश होकर प्रभुके पास वापस आया। प्रभुने इसको आश्वासन दिया... श्रेणिक ! कुछ कर्म ऐसे होते है जो
एकबार प्रभु की देशनामें साधर्मिक भक्ति की भारी महिमा इसके जानने में आई। मगर, साधर्मिक भक्ति किस तरह करनी? स्वयं दोनों रोज एक टंक खा सके इतनी कमाई हो रही थी। तब क्या करना ? साधर्मिक भक्ति करने के लिए क्या ज्यादा कमाई करें? नही, धर्म करनेके लिए ज्यादा धन इकट्ठा नही होना चाहिए ऐसी मान्यता उनके हृदय में बस चूकी थी। ज्यादा धन कमाने गये तो जो रोज जितनी सामायिक हो रही थी इसमें कम करें वह तो इनको बिल्कुल पसंद नहीं था । तो फिर साधर्मिक भक्ति करनी कैसे? इनकी महिमा (प्रभाव) भी कम तो है ही नहीं।
भुगतनेके द्वारा - सहन करने द्वारा ही दूर कर सकते है। शास्त्रीय भाषामें इनको निकाचित (चिकना) कर्म कहते है...।
श्रेणिक ! तूने जो गर्भिनी मृगलीको बाण मारा... इन दो जीवोंकी हत्याके पश्चात् तुम बहुत खुश हुए । इससे यह कर्म वज्र-लेप जैसा चिकना (भारी) बन गया । जो तुझे नरकमें जाकर भुगतना ही पडेगा... | मगर चिंता न कर, अगली (Next) चोविशीमें तू मेरे जैसे ही (प्रथम) तीर्थंकर बनकर सिद्धिपद को प्राप्त करेगा। यह सुनते ही श्रेणिकको आश्वासन मिला।
पुणियाके मुख ऊपर चिंताकी रेखा उभर आयी। परंतु इनकी पत्नी वास्तविक धर्मपत्नी थी, सुशील थी। पतिव्रता और चतुर थी । इसने समाधान (रास्ता) निकाला। एक दिन आप उपवास करें एक दिन मैं उपवास करूँ। और उपवासके दिन एक समय का भोजन बचेगा, जिससे रोज एक साधर्मिक की भक्ति करेंगे।
कमाल... वाह... कमाल... ! संजूके मुखसे सहसा निकल पड़ा।
। संजू तो अपने नगरकी एकसेएक बढ़कर रोमांचक
और जीवंत घटनाओंको सुनता ही रहा । कर्मके गणितको गिनता ही रहा । पितृ-संतापक कोणिक के बारे में सोचते ही रहा । पुणियाका सामायिक धर्म तो उसको बहुत ही
राजू बोला - संजू ! इसी तरह दोनों धर्मचुस्त पतिपत्नीने जीवनभर उपवास के पारणे एकाशन करके (सहज वर्षीतप सहित) साधर्मिक भक्ति की।
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