Book Title: Ek Safar Rajdhani ka
Author(s): Atmadarshanvijay
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 17
________________ जु! अभी श्रेणिक का जीव कहाँ है? संजू ! श्रेणिकका जीव अभी प्रथम रा नरकमें समभावसे दु:ख सहन कर PAINS रहा है। _ नसकम ? संजू के मुँहसे चीख निकल गई... किन्तु, इतनेमें तो... दूर... थोड़े दूर बड़ी बड़ी दीवालें इनके दिखनेमें आयी... जो मजबूत व बड़े पत्थरोंसे बनी हुई थी। थोड़े नजदीक पहुँचे पश्चात् भारी लोहेके सरियेसे जडित दरवाजे भी देखने को मिले। अंदरकी ओर अंधेरा था... तो भी छोटी खिड़कीसे अंदर अल्प प्रकाश जा रहा था। राजूने संजूको अंगुलीनिर्दिष्ट की। राजगृहका यह विशाल कैदखाना है तथा मगधपति श्रेणिकका यह मृत्यु स्थल है। संजूके दिलमें तो आश्चर्यश्रेणी सर्जित हुई। मगधके सम्राटका मृत्यु इस कैदखानेमें ? हा संजू ! जिसने इस कैदखानेका सर्जन किया, इनका ही यहाँ विसर्जन हुआ। चेलनाके पुत्र कोणिकने राज्यलोभमें पिता श्रेणिक को इसी कैदखाने में कैद किया। इतना ही नहीं नमकके पानीमें भिगोकर रखेहएचमडेकेचाबकसेवहरोजके १००(सो) फटके खुले शरीर पर लगवाता था। राजा श्रेणिक प्रत्येक फटके पर "वीर"... "वीर"... बोलकर फटके को सहन करनेकी शक्ति प्राप्त करते थे। संजू ! जब कोणिक, चेलणा के गर्भमें था तब चेलणाको श्रेणिकका मांस खाने का दोहद (ईच्छा) हुइ थी। इसलिए चेलणाको "खुदका गर्भ इसके पिता का शत्रु बनेगा" ऐसी गंध आ गई। इसीलिए कोणिकका जन्म होते ही चेलणाने उसे अपनी दासी द्वारा गुप्तरूपसे कुडेमें डलवा दिया। कैसे भी श्रेणिक को इस बातका पता लग गया। इसने नवजात पुत्रको मंगवा लिया । और चूमीयाँ व प्यारसे स्नान कराया। इसकी (हाथकी) कोनीपर कुकड़ेने कुछ ईजा पहुँचानेसे इसका नाम कोणिक रखा। हमेंशा सो चाबुक मारने का आदेश देनेवाले कोणिकको चेलणाने जब यह बात बताइ तो कोणिकको अपने अपकृत्यके लिए जबरदस्तदु:खलगा। इतना ही नहीं... क्षणका भी विलंब किये बिना खुद ही लोहेका धन "उठाकर केदखानेकी जाली तोडकर पिताको केदमुक्त करने के लिए गया। श्रेणिकने दूरसे ही कोणिकको आते हुए देखा। इसने कल्पना की कि कोणिक आज अत्यंत गुस्सेमें आकर मुझे मारने के लिए आ रहा है। इसको पितृ हत्याका पापनलगे और खुदकी असमाधिनहो जाय इसलिए इसने अपनी अगूठीकाजहरी हीरा चुसकर सदा के लिए जीवनका अंत कर दिया। परंतु अंतिम समयमें शुभध्यानसे वह विचलित हुए दुनिद्वारा प्रथम नरकमें जा पहुँचे। - संजू के देहसे हलचल पसार हो रही थी। राजू बोला: संजू!"जिसका अंत अच्छा उनका सब अच्छा, मगर, जिसका अंत खराब उसका सबखराब" संज! कर्म जब सिर उंचा करता है,तब पिता-पुत्रकासंबंधइसको विघ्नरूप नहीं है, परमात्माके भक्तको भी वह देखता नहीं... राजराजेश्वरोंकाभी वह छोडता नहीं। प्रत्येक श्वासमें प्रभु वीरको याद करनेवाला परम प्रभुभक्त श्रेणिक भी नरक पहुँच गया। बस... इनके मूलमें पूर्वक निकाचित चिकने कर्म ही थे। अज्ञान (मिथ्यात्व) अवस्था में श्रेणिक ने शिकार के लिए जाते एक गर्भिनी हरिनीको निशाना लगाकर तीर मारा... एक साथ दो जीवों की कातिल हत्या हुई। गर्भतोबाहर आते ही तड़पने लगा...उसी वक्त श्रेणिक मूछ पर हाथ रखकर बोला : देखों मैने कैसे एक ही तीरसे दो जीवोंका शिकार किया... पाप करने के पश्चात् पश्चात्ताप करनेसे बचनेकी शक्यता है... परंतु पाप करने के पश्चात् पापकी प्रशंसा (अनुमोदन) करना याने पापको घट्ट बनाना। श्रेणिक ने हत्या करने के बाद पश्चाताप की जगह पापकी प्रशंसा की। जिससे पाप वज्रकी तरह कठित हो गया। वह कर्म जैसे उदयमें आया की तुरंत भाविमें तीर्थंकर बननेवाले श्रेणिकको भी पहलीनरकमें जाना पड़ा। संजूको कर्म-गणित समझाते हुए राजू आगे चला...। लेकिन, राजू! परमात्मामहावीरदेवने राजा श्रेणिक नरकमें जाये नहीं, ऐसा कोई रास्ता नहीं दिखाया? बताया था, राजू बोला। श्रेणिकको जब नरकगमन का पता चला तब वे प्रभुमहावीर के पास व्याकुल होकर नरक निवारण कैसे करना ? वह पूछने लगा! तब प्रभुने इसको दो-तीन तरीके दिखाये। श्रेणिकको कहा - जा, तेरी ही यह राजगृही नगरीमें कालसौरिक कसाई रोजके पांचसौ (५००) भैंसोकी कतल करता है। इसे एकदिनके लिए रोक दे तो तेरा नरकगमन दूर हो जायेगा । श्रेणिक तो अतिहर्षित हो गया। यह कसाई तो मेरी ही प्रजाजन है। वह क्या मेरी बात नहीं मानेगा? जरूर मानेगा। वह पहुँचा कसाईके यहाँ... इतना ही नहीं। उस कसाईको कसकर बांधकर पूरा दिन उल्टेमस्तक कुएँमें रख दिया। फिर दूसरे दिन सुबह जब प्रभुको वंदन करने गये तब प्रश्र किया प्रभु ! अब तो मेरा नरकगमन दूर हुआ न ? प्रभु सस्मित बोले - ना..., रे... श्रेणिक तूने पूरे दिन इसको कुएँमें तो रखा मगर वहाँ के कादव कीचड़ और पानीमें अंगुलिसे भैसों का चित्र बनाकर अपने हाथोंसे मारने लगा। ऐसे मानसिक कल्पना (आकृति) द्वारा इसने ५०० (पांचसौ) भैसोंकी हत्या की है। और मनसे किया हुआ पाप तो सबसे ज्यादा भयंकर-खतरनाक है। यह सुनते ही श्रेणिक तो उदासीन हो गये। इसने प्रभुको कोई दूसरा रास्ता बताने के लिए फिरसे विनती की। प्रभुने इनके आश्वासन के लिए एक दूसरा रास्ता बताया।जाओ श्रेणिक! इसनगरमें रहनेवाले पुणिया-श्रावकका एक सामायिकका फल ले आओ। तेरा नरकगमन दूर होगा। श्रेणिक तो यह सुनकर खुश हो गया। और सोचने लगा। पुणिया जैसा धर्मात्मा क्या मुझे एक सामायिक का दान नही करेंगे? जरुर करेंगे। in Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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