Book Title: Digambar Jain 1915 Varsh 08 Ank 01
Author(s): Mulchand Kisandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 108
________________ अंक १] दिगंबर जैन. Rk १०३ namasteements घरपर ठहर गया, तो मातारामसे विदित हुवा कि आप इलाहाबाद पर्युषणसे पहिले 5 मित्र संकाद. ही पधार गये हैं । मुझे भी यहां आना ही था | सुनते ही हर्ष हुवा और रात्रिको .. सांझका समय है, मंद सुगन्धि पवन गाड़ीमें बैठकर यहां आ गया, धर्मशालामें चल रही है, निशाकर ( चन्द्रमा )का पहुंचा और वहां श्री जिनमंदिरमें यहांके प्रतिबिंब वृक्षों में होकर अपनी प्रभा (चांदनी) सेक्रेटरी बाबू बच्चूलालजीसे आपको पता यत्र तत्र फैला रहा है । इसी समय जय- मालूम हो गया। बस, दिन भर कामकाजचन्द 'सुमेरचन्द दिगम्बर जैन बोर्डिंग करके इक्का भाड़े करके यहां चला आया। हाउस-प्रयाग' से सम्बन्ध रखनेवाली कहिये कुशल तो हैं ? यहां क्या क्या उसीके सन्मुख जो आनन्दबाटिका (छोटा- नवीनता पाई ? सा बाग) है, उसमें नीबूके वृक्ष तले जयचन्दः-नवीनता तो कुछ नहीं। कुंडके किनारे सासनी डाले बैठे हैं। हाथ- यहां चार मंदिर और ५ चैत्यालय हैं, सो में एक हिन्दीकी पुस्तक लिये पढ़ रहे हैं। प्रत्येक जगह दो दो एक एक आदमी इतने में इनके परम मित्र और हमारे पाठ- और स्त्रियां दिखाई देते थे । केवल अनन्तकोंके चिरपरिचित महाशय टेकचन्दजी चतुर्दशीको पंचायती मंदिरमें अनुमानिक पता लगाते हुवे आ पहुंचे और मधुर ५० मर्द और इतनी ही स्त्रिये दो पहरके मुस्क्यानयुत बोले-'जयचन्द भाई, जुहारु” बाद दिखाई दी थी। इनमें कई महाशय जयचन्दः-(चौंककर) ओहो ! टेकच- ऐसे भी थे कि जो केवल इसी दिन दर्शन न्दजी हैं ! जुहारु भाई, आवो आवो। भला करने आते हैं। यह तो बतावो, तुमको यहांका पता किसने टेकचन्दः-तब क्या नित्य सब दर्शन दिया! तकको नहीं आते हैं ? टेकचन्दः-भाई ! दशलक्षण पर्व बीत जयचन्दः-अज़ी नित्य कितने तो इस गया और आपसे श्री मंदिरजीमें भेंट एक दिन भी नहीं आये होंगे ऐसा सुना है। भी दिन नहीं हुई, तब चित्तमें अनेक टेकचन्द:-आपने यह कैसे जाना कि शंकायें उठने लगीं। इधर गृहजंजालके बहुतसे और भी घर जैनियों के हैं जो मारे छुट्टी नहीं मिली, इसलिये घर तक आज भी मंदिर नहीं आये और न प्रायः पहुंचा नहीं, परंतु संतोष कहां ? तब कल आते ही हैं ? और फिरभी उनकी संख्या प्रातःकाल धनदासजीके यहां जाते हुवे जैनियोंमें हैं ?

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