Book Title: Digambar Jain 1915 Varsh 08 Ank 01
Author(s): Mulchand Kisandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 135
________________ अंक १] . दिगंबर जैन. रुपी बाक्-प्तको खोलें, उसके भीतर भरे नेके प्रयत्नमें लग जाना चाहिये और जब हुए अनंत गुणरुपी रत्नोंको देखें, और विषयेच्छा दमन हो जाय व पुत्र समर्थ हो प्रत्येक रत्नके निदर्शनमें लौलीन हों, तथा जाय तो गृहवास छोड़ कमसे कम ब्रह्मचारी यकायक अपना उपयोग सर्व जगत्से हटा हो देशाटन कर उपर कहे दोषोंके भेटनेकेवल मात्र अपने शुद्ध आत्मस्वरुपमें ही का विशेष उपाय करना योग्य है । विना जोड़ दें ताकि उस निज स्वरुपमें भरा प्रभावशाली और सुआचरणी धर्मोपदेशहुआ अतीन्द्रिय आत्मानुभव रुपी परमा- कोंके जगत्के जीव न सच्चे धार्मिक तत्त्वको मृतका आनन्दरस भोगनेमें आ जाय-जिस ही जान सकते और न उद्योगी बन हिंसा, आनन्दके विलासमें मुग्ध होते हए निज झूठ, चोरी, कुशील और असन्तोषके अमलधामके रसिक रत्नत्रयकी त्रिपटि पापोंसे बच सकते हैं। दि. जैन डाइरेक्टरीऔषधको पाकर अनादि भावकर्मरोगको द्वारा प्रगट ग्रामोंमें विना धर्मोपदेशकों के दूर करते हुए परम स्वास्थ्यताका लाभ नाम मात्र धर्म व उसके सेवक पाए जाते करते हैं-आत्मगंगाको ही सच्ची गंगा जान हैं। मुख्यतासे उपदेशका अभाव ही १० उसीमें ही निरन्तर कल्लोल करते हैं और वर्षमें जैनियोंकी संख्याको ८६००० उसीमें ही अकथनीय सुख पा परम तृप्त कमती करनेमें अपराधी है । हो जाते हैं । इसके सिवाय यह भी विचा- यदि इस अपराधका प्रायश्चित करना रते हैं कि हम साधक और साध्यकी हो, तो प्रत्येक प्रान्तके वासियों को मोहसफलताके मध्यमें जो काल है उसमें जग- जाल त्यागना चाहिए और विद्यासम्पन्न त्के दोषोंको हटाने व स्वकर्तव्य पलवानेका हो पवित्र जीवन बिताने व समाजसेवामें उपदेश देवें । उन महान् आत्माओंको जीवनको सफल करनेका उद्देश्य धारण कुमारावस्थासे ही विषय कषाय जीत करना चाहिए। यही हमारे पूर्वजों के ब्रह्मचारी रह जन्मभर स्वपरसेवा करना आदर्श मार्ग हैं। योग्य है । परन्तु जो स्वपरहितकी इच्छा उपरका कर्तव्य केवल धर्म प्रचार व रखते हुए भी विषय कषायोंको जीतनेमें अधर्म निषेधके उद्देश्यसे ही बताया गया असमर्थ हैं, उनको अनेक उपयोगी विद्या- है। परन्तु इसमें सहायक वह गार्हस्थ्य ओंका लाभ कर युवावस्थामें स्त्री-गृहमें पड़ मंडली है, जो धनोपार्जन करती और धन अधिक संग्रहकी लालसा त्याग अपने जिसका मुख्य धर्मसेवन, पूजा और दान निर्वाह के लिये समाजसे द्रव्य लेते हुए है, उनका क्या कर्तव्य इस वर्तमान काउपर कहे हुए दोषोंको इस समाजसे हटा- लमें है इसका विचार भी उपादेय है।

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