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अंक १] » दिगंबर जैन. << dae परिषहसे होनेवाली आकुलतासे दूरवर्ती,
आकाशकी दिशाओंको ही वस्त्र,सम्यग्दर्शन0) हमारा कर्तव्य ज्ञानचारित्रमय रत्नमई धर्मोको ही
D EEEEEELP आभूषण, और द्वादश तपको ही अपने लेखक:-जैनधर्मभूषण ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी सगा माननवाल मह
- संगी माननेवाले महात्मा ही अनादिसे संम्पादक " जैनमित्र ""-बम्बई।]
अशुद्ध चली आई आत्माको ध्यानके पत्थर
पर रगड २ भेद विज्ञान साबुन लगा PA म्पादक - दिगम्बर जैन, शुद्ध करते हुए उसे अरहंत परमात्मा वा
के उत्साहवर्द्धनके लिये जीव मुक्त आत्माकी अवस्थामें बदल देते
। मेरा भी यह कर्तव्य आन हैं-वे महात्मा इस भरतक्षेत्रके अंतर्गत B
पड़ा है कि अपना कुछ आर्यखंडमें वर्तमान प्रवर्तनेवाली अवसर्पिविचार इस पत्रके पाठकोंकी सेवामें भेट णीकी समयावलिमें विराजित श्री ऋषभ, करूं । यद्यपि विद्वतापूर्ण विषयों पर लि- अजित आदिसे ले महावीर पर्यंत चतुर्विखना ही लेखकोंका महत्व हुआ करता है शति तीर्थंकरों व इस कालमें हुए अनंत तथापि मैं उस कर्तव्यपथसे विमुख हो मुनियोंके रुपमें प्रथम गृहस्थ अवस्थामें भी आज यही प्रगट करूंगा कि हम दिगम्बर दिगम्बर महात्माओंके अनुयायी होनेसे जैनियोंका कर्तव्य क्या है।
दिगम्बर जैन थे, त्यागावस्थामें भी दिगम्बर
जैन थे और निर्वाण अवस्थामें भी दिगम्बर निग्रन्थ-वस्त्रादि परिग्रहसे दूर, बाल- जैन हुए। कके समान लज्जा, व भयकषाय रहित, उन्हींके अनुयायी अब हम दिगम्बर अपने सम्पूर्ण तनको समदृष्टिसे हाड़, जैन कहलाते हैं । अतः हमारे पूर्वजोंके मांस, रुधिर, चामका भांड कल्पना कर- जीवनचरित्र हमारे लिये आदर्श हैं । इस नेवाले, शीत-उष्ण आदि परिषहोंके लिये हमारा कर्तव्य उन्हींके समान सुजीविजयी, जैसे हम लोग निरन्तर अपने वन बिताना है । हमारे परमपूज्य तीर्थंकमुखको सर्दीमें भी खुला विना वस्त्र ढ़के रोंमें पांच तीर्थंकर केवल निर्वृत्ति मार्गके ही रखते हुए आरामके साथ शीत-उष्णका अवलम्बी हुए-अर्थात् उन्होंने कुमाराअसर मुख पर नहीं मालूम करते, इसी वस्थासे विना स्त्रीके जंजालमें पड़े हुएही तरह निरन्तर सर्व देहको सर्व ऋतुओंमें त्याग अवस्थामें पग धारण किया और खुली वस्त्ररहित रखते हुए किसी भी अपने आत्माको विशुद्ध करके लक्षों आ