Book Title: Digambar Jain 1915 Varsh 08 Ank 01
Author(s): Mulchand Kisandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 163
________________ > दिगंबर जैन. ९ पहलेके जैनों।- देते नहीं दिखाई अब तो निशान पहले । देते नहीं दिखाई अब तो निशान पहले। हुब्बुल वतनके ख्वाही थे पास बान पहले ॥५॥ उर्द लेख-आयुर्वेदमार्तड ज्योतिषरत्न पंडित देते नहीं दिखाई वो कारोवार पहले । जैनी जीयालालाजी चौधरी-फरुखनगर) बनिये किशान छीपे खाती सुनार पहले। क्या क्या थे जैन तुझमें हिन्दास्थान पहले। कारीगरी दिलेरीमें होशियार पहले ॥ आ नहीं नजर क्यौं वो विद्यावान पहले ॥ दरजी वढी ठठेरे धोबी लुहार पहले। दुनियाँ में तेरा चमका अमली निशान पहले। अब एक भी नहीं है जो थे हजार पहले॥ थी संस्कृत मागधी जिनकी जुबान पहले ॥ पैदल फिरैं भटकते जो थे सवार पहले ॥६॥ रहता था काम जिनको दिन रात शासतरसे। अय बाग हिन्द क्यों तू उजडा बतादे हमको। वो अय फलक छिपाये तूने कहाँ नजरसे ॥१॥ पहले से वे हितैषी अब तो दिखादे हमको ॥ बद बख्त अपनी बीती कुछ तो सुनादे हमको। तहज़ीब अरु तमद्दन जिनका सदा था येशा। गायब हैं क्यों नज़रसे इसका पतादे हमको ॥ सत था जो उनका खाँडा तौ खुल्क उनका पेशा ॥ न्यौपार और खेती करते थे जो हमेशा। इतिहास देखनेसे क्या हो सरूर उनके । .. जब तक नजरसे देखे जावें न नूर उनके ॥७॥ या इल्म फनका अपने हर ऐक शेर बेशा ॥ इक दानवीर चमका दिनकर धर्मका प्यारा । खातेथे धर्म हितका जो दिलमें तीर पहले। था नाम उसका माणिकचन्द उस्से शील हारा ॥ अय सर जमी कहाँ हैं वो भूरवीर पहले ॥२॥ जिसने दिगम्बरोंका रोशन किया सितारा । हर इक अदाँमें उनके था वाँक पन हमेशा। उसकोभी तूने जलदी हमसे किया है न्यारा ॥ आतीथी उनसे बूऐ हुब्बे धर्म हमेशा ॥ मरते समयभी वहतो क्या काम कर गया है। रखते थे गोवे अपना सादा चलन ,हमेशा। देढाई लाख मुद्रा बस नाम कर गया है ॥८॥ खुशबुसे थ मुअत्तर जिनसे चमन हमेशा ॥ परमेष्टि पधारे धन्नू धनी सिधारे । अय गुलस्थान भारत तेरे कहाँ हैं वे गुल। किस किसका गम करैं हम रोरोके सबको हारे ॥ शैदा थे मुल्क सारे जिनपर बरंग बुल्बुल ॥३॥ चम्पत भी हुए चम्पत हत भाग हैं हमारे । जिनके मिज़ाज़में थी हरदम वफाशआरी। अब आलगी है किस्ती अपनी भी जल किनारे ॥ करते थे धर्मकी जो हर वक्त यास दादरी ॥ इक रोज अहबी बोलो हमभी चल बसेंगे। अपनोंसे यी मुहब्बत अगियारसे थी यारी रोवेगे गर हज़ारों लाखौं हमें हँसेंगे ॥९॥ अफसोस अय कहाँ हैं पहलेसे ब्रह्मचारी ॥ मरकिजसे गिर गया है भारत बहुतसा तू अब । वैसे कहाँ हैं साधू रेवा नदी किनारे । भारतके वासियोंमें फैली हुई है बेढब ॥ कर घोर तप यहाँसे शिवपुरको जो सिधारे ॥४॥ तेरी भवरसे किशती निकलेगी देखिये कब । क्षत्री कहाँ और उनके वे खानदान पहले। जैनीकी यह दुआ है जिनराज देवसे अब ॥ पढते थे विप्र विद्या आतम पुराण पहले ॥ भारतके जैनियोंके हाँ फिर दिमाग़ रोशन । तलवार लेके रणमें चलते जवान पहले। ... विद्या विनय सखावतका हो चिराग़ रोशन ॥१०॥ खाना कमाना पीछे विद्याका ध्यान पहले ॥

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