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अंक १]
> दिगंबर जैन. Ek गिने हुवे टेकी निकल आवे तो दूसरी वा- हैं । लिपि भी इसकी इतनी सुगम है, कि त है। अच्छा, ऐसी अवस्थामें जब कि ह- जो कुछ लिखा जाय वही पढ़ा जायगा मारे देशका कलाकौशल्य एक तरह उठ- और और भाषावोंके शब्दोंको भी इस हीसा गया है और तद्विषयक शास्त्रोंका लिपिमें लिखनेसे वैसे ही पढ़े जाते हैं । भी अभावसा ही है, तब क्या हमें यही अन्य भाषावों जैसी गड़बड़ी नहीं मंचती उचित होगा कि हम औरोंका मुंह देखें, है कि लिखा तो कुछ जाय और पढ़ा कुछ उनके आश्रित अपनी आवश्यकतावोंकी जाय, यहांतक कि कभी कभी लिखनेपर्ति करें, और क्रमसे अपने देशका द्रव्य वाला भी स्वयं उसे पढ़नेमें भूल करजावे, खोकर विदेशों में टकराते फिरें ? नहीं नहीं, परन्तु यह (हिन्दी) भाषा ऐसे दोषोंसे हमारा कर्तव्य होगा कि हम अपने पैरोंपर रहित है। यही कारण है कि हमारे नेताखड़े होवें और उद्यम करके द्रव्योपार्जन गण इसी भाषाको देशभाषा बनानेका करें तथा उससे अपनी आवश्यकतावोंकी प्रयत्न कर रहे हैं, और यह प्रयत्न कुछ पूर्ति करके इच्छावों को कम करें। इस प्रकार २ सफलता भी प्राप्त कर रहा है । हमारी न्यायपूर्वक भोगोपभोग करते हुवे शेष स- प्रजावत्सल सकार भी इस ओर ध्यान मय निराकुलतासे धर्मध्यानमें बितावें । दे रही है और एक दिन वह आवेगा,
टेक०-भाई, यह बतावो कि इन बा- जब कि सब देशभरकी भाषा यही तोंसे हिन्दीका क्या सम्बन्ध है ? (हिन्दी) भाषा होगी। बहुतसे देशी ___ जय०-यही बताता हूं कि हमको रजवाड़ोंने भी उर्दूके स्थान पर हिन्दीको इन कलाकौशल्य सीखने, व्यापारकी वृद्धि विठलाया है, परंतु हां, अभी जैसा लोगोंका करने, परस्परके विचार प्रगट करने ध्यान इस ओर खिंचना चाहिए वैसा आदिके लिये एक देशकी एक भाषा नहीं खिंच रहा है । अब हिन्दी भाषामें होना चाहिये और वह एक भाषा यदि बहुतसे दैनिक पत्रोंने जन्म लिया है। हो सक्ती है तो इस सारे भारतवर्षमें बहुतसी पुस्तकें लिखी गई हैं व भाषान्तकेवल एक हिन्दी (नागरी) भाषा ही हो र की गई हैं और की जा रही है, जब सक्ती है, क्योंकि इस भाषा प्रायः सारे कि नेतावोंकी दृष्टि इस ओर लगी हैं और भारतवर्षमें लोग किसी न किसी अंशमें लोगोंका चित्त भी यहां आकर्षीत हुवा व समझ सक्ते हैं । यही भाषा सब भाषावोंसे हो रहा है, तब हमारा भी कर्तव्य है कि सरल व सीर्धा है, जिसे हरएक प्रांतके " शुभस्य शीघ्रम् "का ध्यान कर इन लोग विना प्रयास सहज ही सीख सकते नेतावोंको सच्चे मनसे सहायता करें। एक