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अंक १ ]
> दिगंबर जैन. ६ जब साक्षात् तीर्थकर भगवान अपनी तंत्र होकर जिस तिस प्रकार मृगतृष्णाकी केवलज्ञानरूपीवाणीसे उपदेश करते थे, भांति दौड़ने लगेंगे, फिर आपकी कोई नहीं तब भी सब मनुष्य इन दुर्निवार विषयोंको सुनेगा । जब कोई आदमी भूखसे व्याकुल नहीं छोड़ सके हैं,तब आज छोड़कर साधु बन हो रहा हो, या रोगसे पीड़ीत हो और जावेंगे यह कैसे संभव हो सक्ता है ? हाँ, यदि उस समय उसे भोजन व औषधि कदाचित् कोई "सौमें सती लाखमें यति" दिये बिना ही तत्वोपदेश करने बैठ जावो, होवे तो कह नहीं सकते हैं। तब ऐसी तो क्या उस समय उसे उपदेशका प्रभाव अवस्थामें गिरते गिरते जो बचे उसीको पड़ सकेगा? कभी नहीं, कभी नहीं पड़ेगा। लाभ समझना पड़ेगा, अर्थात् हमको वह उपदेश और उपदेशक दोनोंकी उपेक्षा समयके अनुसार लोगोंको उसी प्रकारसे कर डालेगा और यदि उसे कुछ भोजन स्थिर करना पड़ेगा, ताकि वे समझें कि या औषधि देकर कुछ शांत होनेपर उपदेश ये हमारी आवश्यकतावोंकी पूर्तिमें सहायक कीजिये तो निसंदेह थोड़ा बहुत प्रभाव अवश्य हो रहे हैं। और उनके सहायक ही पड़ जावेगा । इसी तरह इस समय रहते हुवे भी उन्हें सत्मार्गपर स्थिर और हमारे देशमें अविद्या और प्रमादके कारण आरुढ़ करते रहें । दिनके पीछे रात्रि और व्यापारकी कमी हो गई है। विदेशी रात्रिके पीछे दिन होता है, इसी प्रकार लोग अपनी विद्याकला और कौशल्यसे इच्छायेंभी बदलती रहती है। विषयसेवन हमारे यहांसे द्रव्य कमा कर ले जा रहे करके उसके द्वारा उत्पन्न हुई हानि लाभका हैं और हम लोग अपने ही दोषसे निर्धन विचार करके जो बुद्धिमान उन्हें त्याग हुवे उनका मुंह देखते और भाग्यको करता है, वह उन लोगोंसे सब प्रकार कोसते हैं, गाली देते हैं। ऐसी दशामें अच्छा है, जो इच्छावोंके रहते हुवे उनकी हमारा कर्तव्य यह होगा कि हम कुछ प्राप्तिके अभावमें ( प्रमाद व कायरतासे समय तक अपने वैराग्यमय सच्चे उपदेशउपार्जन करके न भोगने) त्यागी बन बैठते को गौण ( कम ) कर दें और पुरुषार्थ हैं, कारण पिछले प्रकार - अनुभवहीन ( उद्योग ) के उपदेशको मुख्यता देवें पुरुषों के गिरजानेका भय है। विषयान्तर तभी कल्याण होगा । कहा है-"कम्मे शरा होनेके डरसे इस बातको यहीं छोड़ देता हूं। ते धम्मे शरा" पुरुषार्थी पुरुष ही धर्मशूर
ताप्तर्य यह है, कि इच्छावों व आ- हो सकता है, इसलिये अपने देशमें व्यापार वश्यकतावोंकी पूर्ति यदि न्यायानुसार हो द्वारा अर्थ ( द्रव्य-धन ) वृद्धिके लिये जावे तब तो ठीक है, नहीं तो लोग स्व- विद्या और कलाकौशल्यके फैलानेकी