Book Title: Dhyan Shatak
Author(s): 
Publisher: Divyadarshan Karyalay

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Page 6
________________ प्रस्तावना जीव की दो अवस्थाएं हैं एक होश की तथा एक बेहोश की। निद्रा मूर्छा दोनों बेहोशी को अवस्थाए हैं। इसमें मन, इन्द्रिये, शरीर, वाणी तथा अवयव सभी निष्क्रिय तथा निश्चेष्ट पड़े हुए होते हैं । वे सब काम करते हों। वह होश की अवस्था है। इन पांचों को चलाने वाला आत्मा है । आत्मा इच्छे उस अनुसार शरीर तथा शरीर के अवयवों को, इन्द्रियों को, वाणी तथा मन को प्रवृत्ति करवाती है, उसकी प्रवृत्ति को दिशा दर्शन करती है तथा प्रवृत्ति रोक भी देती है । यह करने का हेतु दु:ख निवारण और सुख शान्ति है । दुःख न आवे, आया हो तो चला जावे तया सुखशान्ति मिलती रहे, मिली हई टिक कर रहे इसी उद्देश्य से मन वचन काया और इन्द्रियों का प्रवर्तन तथा निवर्तन होता है। यों इन चारों के प्रवतंक निवर्तक के रूप में आत्मा स्वतन्त्र साबित होती है। चारों पर अधिकार या वर्चस्व रखने वाला कोई एक व्यक्ति होना चाहिये और वह आत्मा ही है। , विचार वाणी बर्ताव करने वाली आत्मा है। उसे इसके लिए साधनस्वरूप मन, वचन, काया तथा इन्द्रियों हैं। इन साधनों और उनकी प्रवृत्ति में मन तथा विचार की प्रधानता है। 'मन लइ जावे मोक्ष मां रे, मन ही य नरक मोझार' याने मन मोक्ष में या नरक में ले जाता है। वचन काया व इन्द्रियों की बहुत सी प्रवृत्ति मन से किये जाने वाले विचार के आधार पर चलती है और मन के विचारों के आधार पर शान्ति या अशान्ति का सर्जन होता है। साथ ही शुभ अशुभ कर्मों का बन्ध तथा शुभ अशुभ कर्मों का क्षय भी होता है। उसमें भी किसी विषय पर मन के एकाग्र विचार तथा ध्यान का गहरा प्रभाव पड़ता है।

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