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धर्मपरीक्षा-१
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स्त्रियां क्वचिल्लोचनहारि रूपं शीलं परस्यां बुधवन्दनीयम् । शीलं च रूपं च बभूव यस्यामनन्यलभ्यं महनीयकान्त्याम् ॥३८ गौरीव शम्भोः कमलेव विष्णोः शिखेव दीपस्य दयेव साधोः । ज्योत्स्नेव चन्द्रस्य विभेव भानोस्तस्याविभक्ताजनि सा मृगाक्षी ॥३९ विधाय तां नूनमनूनकान्ति कामं विधाता कृतरक्षितारम् । विलोकमानं सकलं जनं तां विव्याध बाणैः कथमन्यथासौ ॥४० मनोरमा पल्लविता कराभ्यां फूल्लेक्षणाभ्यां विरराज यस्याः। तारुण्यवल्ली फलिता स्तनाम्यां विगाह्यमाना' तरुणाक्षिभृङ्गः ॥४१॥ रंरम्यमाणः कुलिशीव शच्या रत्येव कामः कमनीयकायः। तया से साधं नयति स्म कालं विचिन्तितानन्तरलब्धभोगः ॥४२
४०) १. क कामदेवम् । २. कामः । ४१) १. सेव्यमाना। ४२) १. इन्द्रः । २. सो [ स ] जितशत्रुः । बढ़ती हुई कामाग्निके लिए वायुके वेगके समान, श्रेष्ठ जिनेन्द्र भगवानके द्वारा प्ररूपित धर्मविद्याकी धारक तथा साधी गयी बहुत सी विद्याओंसे सम्पन्न थी (यमकालंकार ) ॥३७॥
किसी स्त्रीमें यदि नेत्रोंको आनन्ददायक मनोहर रूप होता है तो दूसरीमें विद्वानोंके द्वारा वन्दना किये जाने योग्य शील रहता है। परन्तु श्रेष्ठ कान्तिको धारण करनेवाली उस वायुवेगामें दूसरोंके लिए दुर्लभ वे रूप और शील दोनों ही आकर एकत्रित हो गये थे ।।३।।
मृगके समान नेत्रोंको धारण करनेवाली वह वायुवेगा जितशत्रु राजाके लिए इस प्रकारसे अविभक्त थी-सदा उसके साथ रहनेवाली थी-जिस प्रकार कि महादेवके लिए पार्वती, विष्णुके लिए लक्ष्मी, दीपकके लिए उसकी शिखा, साधुकी दया, चन्द्रमाकी चाँदनी तथा सूर्यकी प्रभा उसके साथ रहती है।।३९।।
ब्रह्माने उस वायुवेगाको अतिशय कान्तियुक्त बना करके कामदेवको उसका रक्षक (पहरेदार ) बनाया। कारण कि यदि ऐसा न होता तो फिर वह कामदेव उस (वायुवेगा) की ओर देखनेवाले जनसमूहको अपने समस्त बाणोंसे क्यों वेधता ? नहीं वेधना चाहिए था ॥४०॥
वायुवेगाकी मनोहर तारुण्यरूपी बेल (जवानीरूप लता) दोनों हाथोंरूप पत्तोंसे सहित, नेत्रोंरूप फूलोंसे विकसित और दोनों स्तनोंरूप फलोंसे फलयुक्त होकर युवा पुरुषोंके नेत्रोंरूप भौरोंसे उपभुक्त होती शोभायमान होती थी ॥४१॥
___ रमणीय शरीरको धारण करनेवाला वह जितशत्रु राजा चिन्तनके साथ ही भोगोंको प्राप्त करके उसके साथ रमता हुआ इस प्रकारसे कालको बिता रहा था जिस प्रकार कि इन्द्राणीके साथ रमता हुआ इन्द्र तथा रतिके साथ रमता हुआ कामदेव कालको बिताता है॥४२॥
३९) क ड इ विविक्ताजनि ।
३८) इ बुधनीयशालं; तथा स्वरूपं च बभूव; ब कान्त्याः । ४०) अ ब सकलैनं ।