Book Title: Dharm Pariksha
Author(s): Amitgati Acharya, 
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh

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Page 381
________________ ३५० अमितगतिविरचिता न बुद्धिगर्वेण न पक्षपाततो मयान्यशास्त्रार्थविवेचनं कृतम् । ममैष धर्म शिवशर्मदायकं परीक्षितु केवलमुत्थितः श्रमः ॥१० अहारि कि केशवशंकरादिभियंतारि किं वस्तु जिनेन मे ऽथिनः । स्तुवे जिनं येन निषिध्य तानहं बुधा न कुर्वन्ति निरर्थकां क्रियाम् ॥११ विमुच्य मार्ग कुगतिप्रवर्तकं श्रयन्तु सन्तः सुगतिप्रवर्तकम् । चिराय मा भूदखिलाङ्गतापकः परोपतापो नरकादिगामिनाम् ॥१२ न गृह्णते ये विनिवेदितं हितं व्रजन्ति ते दुःखमनेकधाग्रतः। कुमार्गलग्नो व्यवतिष्ठते न यो निवारितो ऽसौ पुरतो विषीवति ॥१३ विनिष्ठुरं वाक्यमिदं ममोदितं सुखं परं दास्यति नूनमग्रतः । निषेव्यमानं कटुकं किमौषधं सुखं विपाके न ददाति काक्षितम् ॥१४ इस ग्रन्थमें जो मैंने अन्य शास्त्रोंके अभिप्रायका विचार किया है वह न तो अपनी बुद्धिके अभिमानवश किया है और न पक्षपातके वश होकर भी किया है । मेरा यह परिश्रम तो केवल मोक्ष सुखके दाता यथार्थ धर्मकी परीक्षा करनेके लिए उदित हुआ है ॥१०॥ विष्णु और शंकर आदिने न कुछ अपहरण किया है और न जिन भगवान्ने प्रार्थी जनोंको कुछ दे भी दिया है, जिससे कि मैं उक्त विष्णु आदिकोंका निषेध करके जिन भगवान्की स्तुति कर रहा हूँ। अर्थात् विष्णु आदिने न मेरा कुछ अपहरण किया और न जिन भगवान्ने मुझे कुछ दिया भी है। फिर भी मैंने जो विष्णु आदिका निषेध करके जिन भगवान्की स्तुति की है वह भव्य जीवोंको समीचीन धर्म में प्रवृत्त करानेकी इच्छासे ही की है । सो ठीक भी है, कारण कि विद्वान् जन निरर्थक कार्यको नहीं किया करते हैं ॥११॥ जो सत्पुरुष आत्मकल्याणके इच्छुक हैं वे नरकादि दुर्गतिमें प्रवृत्त करानेवाले मार्गको छोड़कर उत्तम देवादि गतिमें प्रवृत्त करानेवाले सन्मार्गका आश्रय लें। परिणाम इसका यह होगा कि नरकादि दुर्गतिमें जानेवाले प्राणियोंको जो वहाँ समस्त शरीरको सन्तप्त करनेवाला महान् दुख दीर्घ काल तक-कई सागरोपम पर्यन्त हुआ करता है वह उनको नहीं हो सकेगा ॥१२॥ जो प्राणी हितकर मार्गके दिखलानेपर भी उसे नहीं ग्रहण करते हैं वे आगेभविष्यमें-अनेक प्रकारके दुखको प्राप्त करते हैं। जो कुमार्गमें स्थित हुआ प्राणी रोकनेपर भी व्यवस्थित नहीं होता है-उसे नहीं छोड़ता है-वह भविष्यमें खेदको प्राप्त होता है ( अथवा जो कुमार्गस्थ प्राणी रोकनेपर उसमें स्थित नहीं रहता है वह भविष्यमें खेदको नहीं प्राप्त होता है ) ॥१३॥ आचार्य अमितगति कहते हैं कि मेरा यह कथन यद्यपि प्रारम्भमें कठोर प्रतीत होगा, फिर भी वह भविष्यमें निश्चित ही उत्कृष्ट सुख देगा । ठीक भी है-कड़ वी औषधका सेवन करनेपर क्या वह परिपाक समयमें अभीष्ट सुखको-नीरोगताजनित आनन्दको-नहीं दिया करती है ? अवश्य दिया करती है ॥१४॥ १०) इ शिवसौख्यदायिक; क ड मुत्थितश्रमः । (११) इ जिनेन चाथिनः ।

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