Book Title: Dharm Pariksha
Author(s): Amitgati Acharya, 
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh

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Page 376
________________ ३४५ धर्मपरीक्षा-२० भरिकान्तिमतिकोतितेजसः कल्पवासिविबुधानपास्य नो। याति वर्शनधरो महामना होनभूतिषु परेषु नाकिषु ॥७८ नायां हित्वा नारकभूमि गच्छत्यन्यां दर्शनधारो। सर्वस्त्रैणं नापि कदाचित्पूज्यो ऽपूज्ये याति न भव्यः [?] ॥७९ यो ऽन्तर्मुहूर्त प्रतिपद्य भव्यः सम्यक्त्वरत्नं विजहाति' सोऽपि । न याति संसारमनन्तपारं विलङ्घते ऽन्यः क्षणतः समस्तम् ॥८० चेतसि कृत्वा गिरमनवद्यां सूचिततत्त्वामिति बुधवन्द्याम् । खेचरपुत्रो जिनमतिसाधोस्तोषमयासीत्रिभुवनबन्धोः ॥८१ सूनावसू विरही कलत्रे नेत्र विनेत्रः सगदो ऽगदत्वे । प्राप्ते निधाने च यथा दरिद्रस्तथा व्रते ऽसौ प्रमदं प्रपेदे ॥८२ ७८) १. विहाय । ७९) १. विना । २. स्त्रीसमूहम् । ८०) १. त्यजति । ८२) १. अपुत्रीयकः । २. रोगी। ___ सम्यग्दर्शनका धारक उदारचेता प्राणी अत्यधिक कान्ति, बुद्धि, कीर्ति और तेजके धारक कल्पवासी ( वैमानिक ) देवोंको छोड़कर हीन विभूतिवाले अन्य देवोंमें-भवनत्रिकमें-उत्पन्न नहीं होता है ।।७८।। सम्यग्दर्शनका धारक प्रथम नारक पृथिवीको छोड़कर द्वितीयादि अन्य नारक पृथिवियोंमें उत्पन्न नहीं होता, वह सब प्रकारकी स्त्री पर्यायको प्राप्त नहीं होता तथा स्वयं पूज्य वह भव्य जीव अपूज्य पर्यायमें-नपुंसक वेदियोंमें नहीं जाता है ।।७।। ___जो भव्य जीव अन्तर्मुहूर्त मात्र काल तक भी सम्यग्दर्शनरूप रत्नको पाकर उसे छोड़ देता है वह भी अपार संसारको नहीं प्राप्त होता है-वह अनन्त संसारको अर्ध पुद्गल परिवर्तन मात्र कर देता है-व अन्य कोई भव्य उस सम्यग्दर्शनको पाकर समस्त संसारको क्षण-भरमें ही लाँघ जाता है-थोड़े ही समयमें मुक्त हो जाता है ।।८०॥ इस प्रकार वह पवनवेग तीनों लोकोंके हितैषी उन जिनमति मुनिके वस्तुस्वरूपको सूचित करनेके कारण विद्वानों द्वारा वन्दनीय उस उपदेशको मनमें अवस्थित करके अतिशय सन्तुष्ट हुआ ॥८१॥ जिस प्रकार पुत्रसे रहित मनुष्य पुत्रको पाकर, वियोगी मनुष्य स्त्रीको पाकर, नेत्रसे रहित ( अन्धा ) मनुष्य नेत्रको पाकर, रोगी मनुष्य नीरोगताको पाकर और निधन मनुष्य निधिको पाकर हर्षको प्राप्त होता है उसी प्रकार वह व्रतसे रहित पवनवेग उस व्रतको पाकर अतिशय हर्षको प्राप्त हुआ ॥८२॥ ७९) अ ब ड इ नातिकदाचित् । ८०) ड ताः for अन्य ; अ विलक्ष्यते for विलङ्घते....पुनस्तम् for समस्तम् । ८१) अ गिरिमनविद्यां । ८२) अ निधाने ऽपि ; इ प्रमुदम् ।

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