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अमितगतिविरचिता
रक्षको ऽप्यङ्गिवर्गस्य धर्ममार्गणकोविदः । सत्यारोपितचित्तो ऽपि वृषवृद्धिविधायकः ॥७८ अम्भोधिरिव गम्भीरः सुवर्णाद्रिरिव स्थिरः । विवस्वानिवे तेजस्वी कान्तिमानिव चन्द्रमाः ॥७९ इभारातिरिवाभीतः कल्पशाखीव कामवः । चरण्युरिव निःसंगो देवमार्ग इवामलः॥८० निःपीडिताशेषशरीरराशिभिः क्षणेन पापैः क्षेतदृष्टिवृत्तिभिः । निषेवमाणा जनता विमुच्यते विभास्वरं यं शिशिरैरिवानलम् ॥८१ पुरन्दरब्रह्ममुरारिशंकरा विनिजिता येने निहत्य मार्गणः। प्रपेदिरे दुःखशतानि सर्वदा जघान तं यो मदनं सुदुर्जयम् ॥८२
७९) १. सूर्यः ८०) १. क सिंह इव । २. वायुः । ८१) १. नष्ट । २. सम्यग्वतरहितैः । ३. शीतैरिव = जनैनिषेव्यमाणः । ८२) १. कामेन । २. यः मुनिः।
शत्रुओंका संहारक था-अहिंसादि महाव्रतोंका परिपालक होकर भी अज्ञानरूप अन्धकारका निर्मूल विनाश करनेवाला था, समस्त झगड़ोंसे रहित होता हुआ भी युद्धोंका प्रवर्तक थासब प्रकारके विकल्पोंसे रहित होता हुआ भी ईर्या-भाषादि पाँच समितियोंका परिपालन करनेवाला था, प्राणिसमूहका रक्षक होकर भी धनुषसे बाणोंके छोड़नेमें कुशल थाप्राणिसमूह के विषयमें दयालू होकर भी धमके खोजनेमें चतुर था, तथा सत्यमें आरोपितचित्त होकर (चित्तको स्थित न करके ) भी धर्मवृद्धिका करनेवाला था-सत्यभाषणमें आरोपितचित्त होकर (चित्तको दृढ़तासे अवस्थित करके ) धर्मकी वृद्धि करनेवाला था ॥७५-७८।।
___ उक्त साधु समुद्रके समान गम्भीर, सुमेरुके समान अटल, सूर्यके समान तेजस्वी, चन्द्रमाके समान कान्तिमान , सिंहके समान निर्भय, कल्पवृक्षके समान अभीष्टको देनेवाला, वायुके समान निष्परिग्रह, और आकाशके समान निर्मल था । ७९-८०॥
___ जिस प्रकार देदीप्यमान अग्निका सेवन करनेवाले प्राणी शीतकी बाधासे मुक्त हो जाते हैं उसी प्रकार उस-जैसे तेजस्वी साधुकी आराधना करनेवाले भव्य जन सम्यग्दर्शन व संयमको नष्ट करके समस्त प्राणिसमूहको पीड़ित करनेवाले पापोंसे क्षणभरमें मुक्त हो जाते हैं ॥८॥
जिस कामदेवके द्वारा बाणोंसे आहत करके वशमें किये गये इन्द्र, ब्रह्मा, विष्णु और महादेव निरन्तर सैकड़ों दुःखोंको प्राप्त हुए हैं उस अतिशय प्रबल कामदेवको उस मुनिने नष्ट कर दिया था ॥८२॥
७८) अयङ्गवर्गस्य....विषवृद्धि । ८०) ब वेदमार्ग । ८१) अ शरीरि.....क्षितदृष्टि; इ निषेव्यमाणं ।