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धर्मपरीक्षा-१६ -
२६१ आभीरतनयो मूखौं सर्वशास्त्रबहिष्कृतौ। पर्यटावो महीं भीत्या गृहीत्वावां स्वयं तपः ॥२६ ते ऽभाषन्त कुतो भीत्या युवाभ्यां स्वीकृतं तपः। उपरोधेने जल्प त्वमस्माकं कौतुकं परम् ।।२७ श्वेतभिक्षुस्ततो ऽजल्पीवाभीरविषये पिता। आवयोरुरणश्रीको वृक्षग्राममवस्थितः ॥२८ अन्येधुरविपालस्य पित्रा जाते ज्वरे सति । आवामुरणरक्षार्थ प्रहितावटवीं गतौ ॥२९ बहुशाखोपशाखाढ्यः कुटुम्बीव फलानतः। कपित्थपादपो दृष्टस्तत्रावाभ्यां महोदयः ॥३० ततो ऽवादि मया भ्राता कपित्थादनचेतसा।
अहमनि कपित्यानि रक्ष भ्रातरेवीरिमाः॥३१ २७) १. प्रसादेन। २८) १. मिंढाविक्रिय। ३१) १. प्रति । २. मिढकान् ।
हम दोनों अहीरके मूर्ख लड़के हैं व किसी भी शास्त्रका परिज्ञान हमें सर्वथा नहीं है । हम तो भयसे स्वयं तपको ग्रहण करके पृथिवीपर घूम रहे हैं ॥२६॥ . मनोवेगके इस उत्तरको सुनकर ब्राह्मण बोले कि तुमने भयसे तपको कैसे ग्रहण किया है, यह तुम हमारे आग्रहसे हमें कहो। कारण कि हमें उसके सम्बन्धमें बहुत कुतूहल हो रहा है ॥२७॥
उनके आग्रहपर वह चार्वाक वेषधारी मनोवेग बोला कि आभीर देशके भीतर वृक्षग्राममें हम दोनोंका उरणश्री नामका पिता रहता था ॥२८॥
एक दिन भेड़ोंके पालकको-चरवाहेको-ज्वर आ गया था, इसलिए पिताने हम दोनोंको भेड़ोंकी रक्षाके लिए वनमें भेजा, तदनुसार हम दोनों वहाँ गये भी ।।२९॥
वहाँ हमने कुटुम्बी ( कृषक ) के समान एक कथके वृक्षको देखा-कुटुम्बी यदि बहुतसी शाखा-उपशाखाओं (पुत्र-पौत्रादिकों) से संयुक्त होता है तो वह वृक्ष भी अपनी बहुत-सी शाखाओं व उपशाखाओं (बड़ी-छोटी टहनियों) से संयुक्त था, कुटुम्बी जिस प्रकार धान्यकी प्राप्तिसे नम्रीभूत होता है उसी प्रकार यह वृक्ष भी अपने विशाल फलोंसे नम्रीभूत हो रहा था-उनके भारसे नीचेकी ओर झुका जा रहा था, तथा जैसे कुटुम्बी महान उदयसे-धनधान्य आदि समृद्धिसे-सम्पन्न होता है वैसे वह वृक्ष भी महान् उदयसे-ऊँचाईसेसहित था ॥३०॥
उसे देखकर मेरे मनमें कैंथ फलोंके खानेकी इच्छा उदित हुई। इसलिए मैंने भाईसे कहा कि हे भ्रात, मैं कैंथके फलोंको खाता हूँ, तुम इन भेड़ोंकी रखवाली करना॥३१॥ २६) भ इ गृहीत्वा वा । २७) ड ते भाषन्ते । २८) अ स चार्वाकस्ततो; क ड इररुणश्रीको; ब क द इ ग्रामव्यवस्थितः । २९) इ पितुर्जाते । ३०) इस्तत्र द्वाभ्याम् ।