Book Title: Dharm Pariksha
Author(s): Amitgati Acharya, 
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh

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Page 359
________________ ३२८ अमितगतिविरचिता प्रियेण दानं दवता यतीनां विधाय चित्ते नवा विधानम् । श्रद्धादयः सप्त गुणा विधेयाः साम्ना विना दत्तमनर्थकारि ॥९३ पञ्चत्वमागच्छदवारणीयं विलोक्य पृष्ट्वा निजबन्धुवर्गम् । सल्लेखना बुद्धिमता विधेया कालानुरूपं रचयन्ति सन्तः ॥९४ आलोच्य दोषं सकलं गुरूणां संज्ञानसम्यक्त्वचरित्रशोधी। प्राणप्रयाणे विदधातु दक्षश्चतुर्विधाहारशरीरमुक्तिम् ॥९५ निदानमिथ्यात्वकषायहीनः करोति संन्यासविधि सुधीर्यः । सुखानि लब्ध्वा स नरामराणां सिद्धि त्रिसप्तेषु भवेषु याति ॥९६ ९३) १. स्थापनमुच्चैःस्थानं पादोदकमर्चनं प्रणामश्च । वाक्कायहृदयएषणाशुद्धय इति नवविधं पुण्यम् । २. श्रद्धा भक्तिस्तुष्टिविज्ञानमलुब्धता क्षमा सत्त्वम्। यत्रते सप्तगुणास्तं दातारं प्रशंसन्ति। ३. नवधा विना। ४. कंडणा पेषणी चुल्ली उदकुम्भः प्रमानी। पञ्चसूना गृहस्थस्य तेन मोक्षं न गच्छति ॥ गृहकर्मणापि निचितं कर्म विमाष्टि खलु गृहविमुक्तानाम् । अतिथीनां प्रतिपूजा रुधिरमलो धावने वारि ॥ __ घरपर आये हुए मुनिजनोंको देखकर जिसके अन्तःकरणमें अतिशय प्रीति उत्पन्न हुआ करती है ऐसे श्रावकको उन मुनिजनोंके लिए दान देते समय मनमें नौ प्रकारकी विधिको करके दाताके श्रद्धा आदि सात गुणोंको भी करना चाहिए । कारण यह कि सद्व्यवहारके बिना-श्रद्धा व भक्ति आदिके बिना-दिया हुआ दान अनर्थको उत्पन्न करनेवाला होना है-विधिके बिना दिया गया दान फलप्रद नहीं होता। उपर्युक्त नौ प्रकारकी विधि यह है१. मुनिजनको आते देखकर उन्हें 'हे स्वामिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ' कहते हुए स्थापित करना, २. बैठने के लिए ऊँचा स्थान देना, ३. पैरोंको धोकर गन्धोदक लेना, ४. अष्टद्रव्यसे पूजा करना, ५. फिर प्रणाम करना; ६-९. पश्चात् मन, वचन और कायकी शुद्धिको प्रकट करके भोजन-विषयक शुद्धिको प्रकट करना । इसके अतिरिक्त जिन सात गुणोंके आश्रयसे दिया गया दान फलवत होता है वे गुण ये हैं-१. श्रद्धा, २. अनुराग, ३. हर्ष, ४. दानकी विधि आदिका परिज्ञान, ५. लोभका अभाव, ६. क्षमा और ७. सत्त्व ॥१३॥ अन्तमें जब अनिवार्य मरणका समय निकट आ जाये तब उसे देखकर बुद्धिमान श्रावकको अपने कौटुम्बिक जनोंकी अनुमतिपूर्वक सल्लेखनाको-समाधिमरणको-स्वीकार करना चाहिए । कारण यह कि सत्पुरुष समयके अनुसार ही कार्य किया करते हैं ॥९४॥ मरणके समय चतुर श्रावक सम्यग्ज्ञानके साथ सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्रको विशुद्ध करनेकी इच्छासे गुरुजनके समक्ष सब दोषोंकी आलोचना करता है-वह उनको निष्कपट भावसे प्रकट करता है तथा क्रमसे चार प्रकारके आहारको व अन्तमें शरीरको भी समताभावके साथ छोड़ देता है ।।९५।। ___ जो विवेकी गृहस्थ निदान-आगामी भवमें भोगाकांक्षा, मिथ्यात्व और कषायसे रहित होकर उस संन्यासकी विधिको-विधिपूर्वक सल्लेखनाको-स्वीकार करता है वह ९३) अ ड इ ददताम् । ९६) अ करोतु; क लब्ध्वा नृसुराधिपानाम् ।

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