Book Title: Dharm Pariksha
Author(s): Amitgati Acharya, 
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh

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Page 369
________________ ३३८ अमितगतिविरचिता भजते वपुषकमसौ' पुरुषं वचसा कुरुते परेमस्तरुषम् । मनसा परमाश्रयते तरसा विदधाति कथं सुखमन्यरसा ॥४२ मद्यमांसकलितं मुखमस्या' यो निरस्तशमसंयमयोगः । चुम्बति स्म रतिमोहितचेतास्तस्य तिष्ठति कथं व्रतरत्नम् ॥४३ नीचाचारैः सर्वदा वर्तमानः पुत्रं मित्रं बान्धवं सूरिवर्गम् । वेश्यावश्यो मन्यते यो न मूढः शान्ताराध्यस्तस्य धर्मः कुतस्त्यः॥४४ निषेविता शर्मकरी प्रसक्त्या निजापि भार्या विदधाति दुःखम् । स्पृष्टा हि चित्रांशुशिखा हिमातः प्रप्लोषते किं न हिमातिहन्त्री ॥४५ ४२) १. वेश्या । २. अन्यपुरुषम् । ३. कामासक्तम् । ४, शीघ्रण। ४३) १. वेश्यायाः। ४४) १. सत्पुरुषेण एते। ४५) १. हिमपीडितैः मत्यैः । २. हिमपीडाहन्त्री-हरति । -उत्तम विचारोंसे-रहित होती है; उसका बुद्धिमान् जनोंको दूरसे ही परित्याग करना चाहिए । उसका सेवन उन्हें कभी भी नहीं करना चाहिए ॥४१॥ वह वेश्या शरीरसे किसी एक पुरुषका सेवन करती है, वचनसे किसी दूसरेको क्रोधसे रहित-सन्तुष्ट करती है, तथा मनसे अन्य ही किसीका शीघ्र आश्रयण करती है-उसे फाँसनेका विचार करती है। इस प्रकार विविध पुरुषोंमें उपयोग लगानीवाली वह वेश्या भला कैसे सुख दे सकती है ? नहीं दे सकती है ॥४२॥ जो वेश्याके अनुरागमें चित्तको लगाकर शान्ति व संयमसे भ्रष्ट होता हुआ उसके मद्य व मांससे संयुक्त मुखका चुम्बन करता है उसके व्रतरूप रत्न भला कैसे रह सकता है ? अर्थात् इस प्रकारकी वेश्यासे अनुराग करनेवाले व्यक्तिके कभी किसी भी प्रकारके व्रतकी सम्भावना नहीं की जा सकती है ॥४३॥ जो मूर्ख वेश्याके वश होकर नीच कृत्योंमें प्रवृत्त होता हुआ पुत्र, मित्र, बन्धु और आचार्यको नहीं मानता है-उनका तिरस्कार किया करता है-उसके भला शान्त पुरुषोंके द्वारा आराधनीय धर्मका सद्भाव कहाँसे हो सकता है ? नहीं हो सकता है ॥४४॥ अपनी स्त्री यद्यपि सुखको उत्पन्न करनेवाली है, तथापि यदि उसका अतिशय आसक्तिके साथ अधिक मात्रामें उपभोग किया जाता है तो वह भी दुखको-दौर्बल्य या क्षयादि रोगजनित पीडाको उत्पन्न करती है । ठीक है-यदि शीतसे पीड़ित प्राणी उस शीतको दूर करनेवाली अग्निकी ज्वालाका स्पर्श करते हैं तो क्या वह शरीरको नहीं जलाती है ? अवश्य जलाती है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार शैत्यकी बाधाको नष्ट करनेवाली अग्निकी ज्वालाका यदि दूरसे सेवन किया जाता है तो वह प्राणीकी उस शैत्यजनित बाधाको दूर किया करती है, परन्तु यदि उसका अतिशय निकट स्थित होकर स्पर्श किया जाता है तो वह केवल दाहजनित सन्तापको ही बढ़ाती है; ठीक इसी प्रकारसे यदि अपनी स्त्रीका भी अनासक्तिपूर्वक अल्प मात्रामें उपभोग किया जाता है तो वह प्राणोकी कामबाधाको दूर कर उसे ४२) इ सुखं कथं । ४४) अ क ड इ शूरिवर्ग; ब सूरिमार्यम् । ४५) इ प्रप्लोषिता ।

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