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अमितगतिविरचिता
पाशं दण्डं विषं शस्त्रं हलं रज्जु ं हुताशनम् । धात्री लाक्षामयो' नीलों नान्येभ्यो ददते बुधाः ॥८१ संधानं पुष्पितं विद्धं क्वथितं जन्तुसंकुलम् । वजयन्ति सदाहारं करुणापरमानसाः ॥८२ शिक्षाव्रतं चतुर्भेदं सामायिकमुपोषितम् । भोगोपभोगसंख्यानं संविभागो ऽशने ऽतिथेः ॥८३ जीविते मरणे सौख्ये दुःखे योगवियोगयोः । समानमानसैः कार्यं सामायिकमतन्द्रितैः ॥८४ द्वासना' द्वादशावर्ता चतुर्विधशिरोन्नतिः । त्रिकालवन्दना कार्या परव्यापारवजितैः ॥८५ मुक्तभोगोपभोगेन पापकर्मविमोचिना । उपवासः सदा भक्त्या कार्यः पर्वचतुष्टये ॥ ८६
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८१) १. धाउडीनां फूल । २. लोह ।
८३) १. उपवास ।
८४) १. पञ्चेन्द्रियमनोनिरोधनैः ।
८५) १. पद्मासनम् ।
विद्वान् जन जाल, लाठी, विष, शस्त्र, हल, रस्सी, अग्नि, पृथिवी ( अथवा आमलकी–वनस्पतिविशेष), लाख, लोहा और नीली; इत्यादि परबाधाकर वस्तुओंको दूसरोंके लिए नहीं दिया करते हैं ॥ ८१ ॥
इसके अतिरिक्त जिनके हृदय में दयाभाव विद्यमान है वे श्रावक अचार तथा घुने हुए, सड़े-गले एवं जीवोंसे व्याप्त आहारका परित्याग किया करते हैं ॥ ८२ ॥
सामायिक, उपोषित (प्रोषधोपवास), भोगोपभोगपरिसंख्यान और भोजनमें अतिथिके लिए संविभाग—अतिथिसंविभाग; इस प्रकार शिक्षाव्रतके चार भेद हैं || ८३ ॥
श्रावकोंको आलस्यसे रहित होकर जीवन व मरणमें, सुख व दुखमें तथा संयोग व वियोग में मनमें समताभावका आश्रय लेते हुए - राग-द्वेष के परित्यागपूर्वक – सामायिकको करना चाहिए ॥ ८४ ॥
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सामायिकमें दूसरे सब ही व्यापारोंका परित्याग करके पद्मासन अथवा कायोत्सर्ग दोनों में से किसी एक आसनसे अवस्थित होकर प्रत्येक दिशा में तीन-तीनके क्रमसे मन, वचन व कायके संयमनस्वरूप शुभ योगोंकी प्रवृत्तिरूप बारह आवर्त (दोनों हाथोंको जोड़कर अग्रिम भागकी ओरसे चक्राकार घुमाना), चार शिरोनतियाँ ( शिरसा नमस्कार ) और तीनों सन्ध्याकालों में वन्दना करना चाहिए ॥ ८५ ॥
भोग और उपभोगके परित्यागपूर्वक सब ही पाप क्रियाओंको छोड़कर श्रावकको दो अष्टमी व दोनों चतुर्दशीरूप चारों पर्वोंमें निरन्तर भक्ति के साथ उपवासको भी करना चाहिए ॥ ८६ ॥
८२) अ कुथितम् ।