Book Title: Dharm Pariksha
Author(s): Amitgati Acharya, 
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 340
________________ धर्मपरीक्षा-१८ ३०९ प्रदश्य वाक्यं जिननाथभाषितं न वारणां' चेदकरिष्यथा मम । तदाभ्रमिष्यं भवकानने चिरं दुरापपारे बहुदुःखपादपे ॥९१ त्रिमोहमिथ्यात्वतमोविमोहितो गतो दुरन्तां परवाक्यशर्वरीम् । विबोधितो मोहतमोपहारिभिजिनार्कवाक्यांशुभिरुज्ज्वलैस्त्वया ॥९२ विहाय मागं जिननाथदेशितं निराकुलं सिद्धिपुरप्रवेशकम् । चिराय लग्नो ऽध्वनि दुष्टदर्शिते महाभयश्वभ्रनिवासयायिनि ॥९३ गृहप्रियापुत्रपदातिबान्धवाः पुराकरग्रामनरेन्द्रसंपदः। भवन्ति जीवस्य पदे पदे परं' बुधाचिता तत्त्वरुचिर्न निर्मला ।।९४ विदूषितो येने समस्तमस्तधीः प्रदश्यमानं विपरीतमीक्षते। निरासि मिथ्यात्वमिदं मम त्वया प्रदाय सम्यक्त्वमलभ्यमुज्ज्वलम् ॥९५ ९१) १. वर्जनम् । ९२) १. देवगुरुशास्त्र । २. प्रतिबोधितः। ९४) १. पण। ९५) १. मिथ्यात्वेन । २. पदार्थम् । ३. अनाशि, अस्फेटि । अन्धकारसे परिपूर्ण कुएँ में गिरनेसे बचाया है। अतएव तुम ही मेरे यथार्थ बन्धु-हितैषी मित्र-हो, तुम ही पिता हो तथा तुम ही मेरे कल्याणके करनेवाले गुरु हो ॥१०॥ यदि तुमने जिनेन्द्र के द्वारा कहे गये वाक्यको-उनके द्वारा उपदिष्ट तत्त्वकोदिखलाकर न रोका होता तो मुझे बहुत प्रकारके दुःखोंरूप वृक्षोंसे परिपूर्ण अपरिमित संसाररूप बनमें दीर्घ काल तक परिभ्रमण करना पड़ता ॥११॥ मैं तीन मूढ़तास्वरूप मिथ्यात्वरूप अन्धकारसे विमूढ़ होकर दुर्विनाश दूसरोंके उपदेशरूप रात्रिको प्राप्त हुआ था। परन्तु तुमने उस मूढ़तास्वरूप अन्धकारको नष्ट करनेवाले जिनदेवरूप सूर्यके वाक्यरूप उज्ज्वल किरणसमूहके द्वारा मुझे प्रबुद्ध कर दिया है-मेरी वह दिशाभूल नष्ट कर दी है ॥१२॥ जो जिनेन्द्रके द्वारा उपदिष्ट मोक्षका मार्ग आकुलतासे रहित होकर मुक्तिरूप नगरीके भीतर प्रवेश करानेवाला है उसको छोड़कर मैं दीर्घ कालसे दुष्ट मिथ्यादृष्टियोंके द्वारा प्रदर्शित ऐसे महाभयके उत्पादक व नरकमें निवासके कारणभूत कुमार्गमें लग रहा था ॥९३॥ प्राणीके लिए घर, वल्लभा, पुत्र, पादचारी सैनिक, बन्धुजन तथा नगर, सुवर्णरत्नादिकी खाने, गाँव एवं राजाकी सम्पत्ति-राज्यवैभव: ये सब पग-पगपर प्राप्त हआ करते हैं । परन्तु विद्वानोंके द्वारा पूजित वह निर्मल तत्त्व-श्रद्धान-सम्यग्दर्शन-उसे सुलभतासे नहीं प्राप्त होता है-वह अतिशय दुर्लभ है ॥९४॥ जिस मिथ्यात्वसे दूषित प्राणी नष्टबुद्धि होकर हितैषी जनके द्वारा दिखलाये गये समस्त कल्याणके मार्गको विपरीत-अकल्याणकर-ही देखा करता है उस मिथ्यात्वको तुमने मुझे दुर्लभ निर्मल सम्यग्दर्शन देकर नष्ट कर दिया है ॥१५॥ ९१) ड वारणम्; इ भ्रमिष्ये । ९२) क ड शर्वरी....विमोहितो मोह । ९३) इ महाभये; अ निवासदायिनि । ९५) क प्रादायि ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430