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धर्मपरीक्षा-१४
जजल्पुर्याज्ञिकाः साधो तव सत्यमिदं वचः । परमुत्पन्नमात्रेण तपो ऽग्राहि कथं त्वया ॥७९ परिणीताभवत् कन्या कथं ते जननी पुनः 1 सुदुर्घटमिदं ब्रूहि संदेहध्वान्तविच्छिदे ॥८०
भारो ऽवद्वच्मि श्रूयतामवधानतः । पाराशरो ऽजनिष्टात्र तापसस्तापसाचितः ॥ ८१ असावुत्तरितुं नावा कैवर्या वाह्यमानया । प्रविष्टः कन्यया गङ्गां नवयौवनदेहया ॥८२ तामेषे भोक्तुमारेभे दृष्ट्वा तारुण्यशालिनीम् । पुष्पायुधशरैभिन्नः स्थानास्थाने न पश्यति ॥ ८३ चकमे सापि तं बाला शापदानविभीलुका' । अकृत्यकरणेनापि सर्वो रक्षति जीवितम् ॥८४
८३) १. पारासरः ।
८४) १. स्रापदानभीता ।
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मनोवेगके इस कथनको सुनकर यज्ञकर्ता ब्राह्मण बोले कि हे साधो ! यह तुम्हारा कहना सत्य है । परन्तु यह कहो कि उत्पन्न होते ही तुमने तपही ग्रहण कैसे कर लिया ||७९ || इसके अतिरिक्त तुम्हारी माता तुमको जन्म देकर कन्या कैसे अवस्थामें उसका पुनः विवाह कैसे सम्पन्न हुआ, यह अतिशय असंगत रूप अन्धकारको नष्ट करनेके लिए हमें उत्तर दो ||८०||
रही और तब वैसी
। इस सब सन्देह
इसपर मनोवेगने कहा कि यह भी मैं जानता हूँ। मैं उसे कहता हूँ, सावधान होकर सुनिए - यहाँ अन्य तापस जनोंसे पूजित - सब तापसोंमें श्रेष्ठ – एक पारासर नामका तापस हुआ है ॥८१॥
वह जिस नावसे गंगा नदीको पार करनेके लिए उसके भीतर प्रविष्ट हुआ उसे एक नवीन वनसे विभूषित शरीरवाली धीवर कन्या चला रही थी ॥ ८२ ॥
उसे यौवन से विभूषित देखकर पारासर काम के बाणोंसे विद्ध हो गया। इससे उसने उस कन्याको भोगना प्रारम्भ कर दिया । सो ठीक है— कामके बाणोंसे विद्ध हुआ प्राणी योग्य और अयोग्य स्थानको - स्त्रीकी उच्चता व नीचताको नहीं देखा करता है || ८३ ||
शाप देनेके भयसे भीत होकर उस धीवर कन्याने भी उसे स्वीकार कर लिया । सो ठीक है, क्योंकि, सब ही प्राणी अयोग्य कार्य करके भी प्राणोंकी रक्षा किया करते हैं || ८४||
७९) क तदसत्य ; अ जजल्पि । ८१) वाग्मी । ८३) अ स्थाने स्थाने । पतिम् .... जीवितुम् ।
८४) ब चकमे सा