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अमितगतिविरचिता तपःप्रभावतो ऽकारि तेन तत्र तमस्विनी'। सामग्रीतो विना कार्य किंचनापि न सिध्यति ॥८५ सुरतानन्तरं जातस्तयोव्यासः शरीरजः । याचमानो ममादेशं देहि तातेति भक्तितः ॥८६ अत्रैव वत्स तिष्ठ त्वं कुर्वाणः पावनं तपः। पाराशरो ददौ तस्मै नियोगेमिति तुष्टधीः ॥८७ भूयो योजनगन्धाख्यां सौगन्धव्याप्तदिङमुखाम् । अगात् पाराशरः कृत्वा कुमारी योग्यमाश्रमम् ॥८८ तापसः पितुरादेशाज्जननानन्तरं कथम् । व्यासो मातुरहं नास्मि कथमेतद्विचार्यताम् ॥८९ धीवरी जायते कन्या व्यासे ऽपि तनये सति । मयि माता न मे ऽत्रास्ति कि परं पक्षपाततः ॥९०
८५) १. रात्रिः । ८७) १. हे । २. आदेशः ।
उस समय पारासर ऋषिने वहाँ तपके प्रभावसे दिनको रात्रिमें परिणत कर दिया। ठीक भी है, क्योंकि, सामग्रीके बिना कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता है ।।८५।।
सम्भोगके पश्चात् उन दोनोंके व्यास पुत्र उत्पन्न हुआ। उसने 'हे पूज्य पिता! मुझे आज्ञा दीजिए' इस प्रकार भक्तिपूर्वक पितासे याचना की ।।८।।
इसपर पिता पारासरने सन्तुष्ट होकर उसे 'हे वत्स ! तुम पवित्र तपका आचरण करते हुए यहींपर स्थित रहो' इस प्रकारकी आज्ञा दी ।।८७॥
फिर पारासर ऋषि उस धीवर कन्याको अपनी सुगन्धिसे दिमण्डलको व्याप्त करनेवाली योजनगन्धा नामकी कुमारी करके अपने योग्य आश्रमको चले गये ।।८।।
इस प्रकार वह व्यास जन्म लेनेके पश्चात् पिताकी आज्ञासे कैसे तापस हो सकता है और मैं जन्म लेनेके पश्चात् माताकी आज्ञासे क्यों नहीं तापस हो सकता हूँ, इसपर आप लोग विचार करें ॥८॥
इसी प्रकार व्यास पुत्रके उत्पन्न होनेपर भी वह धीवरकी पुत्री तो कन्या रह सकती है और मेरी माता मेरे उत्पन्न होनेपर कन्या नहीं रह सकती है, यह पक्षपातको छोड़कर और दूसरा क्या हो सकता है-यह केवल पक्षपात ही है ॥२०॥
८६) व भाक्तिकः । ८७) क ड इ तिष्ठ वत्स; अ तस्मिन्मियोग'; व रुष्टधीः । ८८) म सृत्वा for कृत्वा । ८९) इ जननानन्तरः । ९०) ब न for किम् ।