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अमितगतिविरचिता 'नृत्यदर्शनमात्रेण सारं वृत्तं मुमोच यः। स ब्रह्मा कुरुते किं न सुन्दरां प्राप्य कामिनीम् ॥२९ एकदा विष्टरक्षोभे जाते सति पुरंदरः। पप्रच्छ धिषणं साधो केनाक्षोभि ममासनम् ॥३० जगाद धिषणो देव ब्रह्मणः कुर्वतस्तपः। अर्धाष्टाब्दसहस्राणि वर्तन्ते राज्यकाङ्क्षया ॥३१ प्रभो तपःप्रभावेण तस्यायं महता तव । अजनिष्टासनक्षोभस्तपसा कि न साध्यते ॥३२ हरे हर तपस्तस्य त्वं प्रेयं स्त्रियमुत्तमाम् । नोपायो वनितां हित्वा तपसां हरणे क्षमः ॥३३ ग्राहं ग्राहेमसौ स्त्रीणां दिव्यानां तिलमात्रकम् ।
रूपं निर्वतयामास भव्यां रामां तिलोत्तमाम् ॥३४ २९) १. ततः ब्रह्मणे। ३०) १. क सिंहासन चञ्चल जाते सति । २. बृहस्पतिम् । ३१) १. क चत्वारि सहस्राणि । २. भवन्ति । ३३) १. हे पुरन्दर; क हे इन्द्र । २. हरणं कुरु । ३४) १. क गृहीत्वा । २. इन्द्रः ।
जिस ब्रह्मदेवने तिलोत्तमा अप्सराके नृत्यके देखने मात्रसे ही संयमको छोड़ दिया वह भी सुन्दर रमणीको पाकर क्या न करेगा? वह भी उसके साथ विषयभोगकी इच्छा करेगा ही ॥२९॥ . उक्त घटनाका वृत्त इस प्रकार है-एक समय इन्द्रके आसनके कम्पित होनेपर उसने अपने मन्त्री बृहस्पतिसे पूछा कि हे साधो! मेरा यह आसन किसके द्वारा कम्पित किया गया है ॥३०॥
इसके उत्तरमें बृहस्पतिने कहा कि हे देव ! राज्यकी इच्छासे ब्रह्माको तप करते हुए चार हजार वर्ष होते हैं। हे प्रभो ! उसके अतिशय तपके प्रभावसे ही यह आपका आसन कम्पित हुआ है। सो ठीक भी है, क्योंकि, तपके प्रभावसे क्या नहीं सिद्ध किया जाता है ? अर्थात् उसके प्रभावसे कठिनसे भी कठिन कार्य सिद्ध हो जाया करता है ॥३१-३२।। ___हे देवेन्द्र ! तुम किसी उत्तम स्त्रीको प्रेरित करके उसके इस तपको नष्ट कर दो, क्योंकि, तपके नष्ट करनेमें स्त्रीको छोड़कर और दूसरा कोई भी उपाय समर्थ नहीं है ॥३३॥
___ तदनुसार इन्द्रने दिव्य स्त्रियोंके तिल-तिल मात्र सौन्दर्यको लेकर तिलोत्तमा नामक सुन्दर स्त्रीकी रचना की ॥३४॥
२९) ब सारवृत्तं । ३१) ब अर्धष्टाष्टसहस्राणि; इ राजकाङ्क्षया । ३३) ब तपस्तत्त्वं प्रेर्यंत स्त्रिय'; ब क ड इ तपसो हरणे परः ।