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अमितगतिविरचिता स भग्नो वशमे पूर्व विद्यावैभवदृष्टितः। नारीभिभूरिभोगाभिवृत्ततः को न चाल्यते ॥३७ खेटकन्याः स दृष्ट्वाष्टौ विमुच्य चरणं क्षणात् । तदीयजनकैर्दताः स्वीचकार स्मरातुरः ॥३८ अमुष्यासहमानास्ता रतिकर्म विपेदिरे'। नाशाय जायते कार्ये सर्वत्रापि व्यतिक्रमः ॥३९ रतिकर्मक्षमा गौरी याचित्वा स्वीकृता ततः। उपाये यतते योग्ये कर्तुकामो हि काक्षितम् ॥४० एकदा स तया साधं रत्वा स्वीकुर्वतः सतः।
नष्टा त्रिशूलविद्याशु सतीव परभर्तृतः॥४१ ३७) १. माहात्म्यतः। ३९) १. अम्रियन्त । २. अत्यासक्तिः । ४१) १. रतिं कृत्वा कायशुद्धि विना विद्यायाः त्रिशूलीविद्या स्वीकृता ।
वह दसवें विद्यानुवाद पूर्वके पढ़ते समय विद्याओंके प्रभावको देखकर मुनिव्रतसे भ्रष्ट हो गया। सो ठीक भी है, क्योंकि अतिशय भोगवाली स्त्रियोंके द्वारा भला कौन-सा पुरुष संयमसे भ्रष्ट नहीं किया जाता है-उनके वशीभूत होकर प्रायः अनेक महापुरुष भी उस संयमसे भ्रष्ट हो जाते हैं ॥३७॥
. उसने आठ विद्याधर कन्याओंको देखकर संयमको क्षण-भरमें छोड़ दिया और उनके पिता जनोंके द्वारा दी गयीं उन कन्याओंको कामसे पीड़ित होते हुए स्वीकार कर लिया ॥३८॥
परन्तु उक्त कन्याएँ इसके साथ की गयी रतिक्रियाको न सह सकनेसे विपत्तिको प्राप्त हुई–मर गयीं। ठीक है-, कार्यके विषयमें की गयी विपरीतता सर्वत्र ही विनाशका कारण होती है ॥३९॥
तब उसने अपने साथ रतिक्रिया करनेमें समर्थ गौरी (पार्वती) को माँगकर उसे स्वीकार कर लिया । ठीक है-अभीष्ट कार्यके करनेकी अभिलाषा रखनेवाला व्यक्ति योग्य उपायके विषयमें प्रयत्न किया ही करता है ॥४०॥
एक समय महादेवने उस गौरीके साथ सम्भोग करके जब त्रिशूलविद्याको स्वीकार किया तब वह उसके पाससे इस प्रकार शीघ्रतासे भाग गयी जिस प्रकार कि परपुरुषके पाससे पतिव्रता स्त्री भाग जाती है ।।४।।
३७ ) क विद्याविभव । ३९) ब क माना सा; इ रतिकर्म; इ कार्य for कार्ये । क ड इ सर्वत्राति । ४०) अ ब ड इ रतिकर्म । ४१) अ स्वीकुर्वता सता; क°विद्यायाः; अ परिभर्तृतः ।