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अमितगतिविरचिता तार्णदारविकदेहजा वयं शास्त्रमार्गमपि विन नाजसा' । वादनाम तव वाक्यतो ऽधुना भट्ट बुद्धमपबुद्धिना मया ॥९३ भारतादिषु कथासु' भूरिशः सन्ति किं न पुरुषास्तवेदशाः । केवलं हि परकीयमीक्षते दूषणं जगति नात्मनो जनः ॥२४ काञ्चने स्थितवता मनःक्षतिविष्टरे यदि मयात्र ते तदा। उत्तरामि तरसेत्यवातरत् खेचरो ऽमितगतिस्ततः सुधीः ॥९५
इति धर्मपरीक्षायाममितगतिकृतायां
.. तृतीयः परिच्छेदः ॥३ ९३) १. क परमार्थेन । २. ज्ञातम् । ३. अल्पबुद्धिना; क विगतबुद्धिना। ९४) १. पुराणेषु । २. मादृशाः । ९५) १. मनःपीडा । २. इत्युक्त्वा विष्टरात् उत्तीर्य [र्णः] । बैठ गया तथा हे विप्र ! इसकी आकाशमें कितनी ध्वनि होती है, इस विचारसे मैंने भेरीको भी बजा दिया । ९२॥
- हम तो तृण-काष्ठ बेचनेवालेके लड़के हैं जो वास्तवमें शास्त्रके मार्गको भी नहीं जानते हैं। हे भट्ट ! मैं बुद्धिहीन हूँ, 'वाद' शब्दको इस समय मैंने तुम्हारे वाक्यसे जाना है ॥९३।। . क्या तुम्हारे यहाँ महाभारत आदिकी कथाओंमें ऐसे ( मुझ जैसे ) पुरुष नहीं हैं ? ठीक है-संसारमें मनुष्य केवल दूसरोंके ही दोषको देखा करता है, किन्तु वह अपने दोषको नहीं देखता है ॥९४॥
. यदि मेरे इस सुवर्णमय सिंहासनपर बैठ जानेसे तुम्हारे मनमें खेद हुआ है तो मैं उसके ऊपरसे उतर जाता हूँ, यह कहता हुआ वह अपरिमित गतिवाला बुद्धिमान मनोवेग विद्याधर उसपरसे शीघ्र ही उतर पड़ा ॥१५॥
इस प्रकार अमितगतिविरचित धर्मपरीक्षामें तीसरा
परिच्छेद समाप्त हुआ ॥३॥
९३) क ड दारुविक; ब नाञ्जस; अ बुद्धमपि । ९५) अ क ड. इ मनःक्षिति।