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धर्म-कर्म-रहत्य नहीं सकता। यदि पग में चोट लगने पर हाथ मलहम पट्टी द्वारा उसके मिटाने का यत्न न करे, तो जव हाथ कोई दूर की वस्तु को लेना चाहेगा तव पग के असमर्थ रहने के कारण उस वस्तु का हस्तगत होना सम्भव नहीं है। उदर की सुधा-निवृत्ति को लिये यदि हाथ पाँव भोजन का जुगाड़ न करें, तो उससे उदर की हानि के सिवा हाथ पाँव की भी हानि होगी; क्योंकि उदरस्थ भोजन द्वारा ही हाथ पाँव आदि की भी पुष्टि होती है । सत्य यह है कि शरीर के अङ्ग प्रत्यङ्ग के सुख दुःख समान हैं, एक के सुख से दूसरे सुखी और दुःख से दुःखी होते हैं, अत. एव समूह के सुख की वृद्धि और दुःख की निवृत्ति से ही प्रत्येक भाग का कल्याण होता है। इसी प्रकार परम पुरुष के विश्वव्यापी यज्ञ का फल यह विश्व ब्रह्माण्ड ईश्वर का विराट शरीर है (जिसका सविस्तर वर्णन पुरुषसूक्त में है ) जिसके प्रत्येक प्राणी अभिन्न रूप में अङ्ग प्रत्यङ्ग हैं। अतएव वे सब एक हैं (पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्-पुरुषसूक्त-ये सव एक परमपुरुष ही हैं, जो हुए और होंगे) और वाह्य प्राकृतिक दृष्टि से नानात्व रहने पर भी अन्तरस्थ परमात्म-दृष्टि से नानात्व नहीं है (नेह नानाऽस्ति किञ्चन-यहाँ नानात्व नहीं है)। अतएव प्रत्येक प्राणो का यह परम कर्तव्य है कि ब्रह्माण्ड-नायक परम यज्ञ-पुरुष के आदि-सङ्कल्प ( सर्वत्र अपने दिव्य गुणों का प्रकाश और ब्रह्मानन्द का वितरण) की पूर्ति के लिये यज्ञ-धर्म का सम्पादन करे जिस यज्ञ का आधार यह सर्वा