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धृति
३८ निकलता है कि दुःख, शोक, हानि आदि के आने पर व्यय नहीं होना चाहिए किन्तु धैर्य और सन्तोष का अवलम्बन करना चाहिए | कष्ट के आने पर अज्ञानी और अधीर धैर्य का अवलम्बन न कर कष्ट से शीघ्र मुक्त होने के लिये अनेक प्रकार के गर्हित कर्म करते हैं जिससे दुष्टफल टलता नहीं किन्तु उस कर्म का दुष्टफल उनको भविष्य में फिर भोगना पड़ता है जिसके कारण उनके दुःख की कमी न होकर वृद्धि होती है । जो कट आने पर भी धैर्य का अवलम्बन कर कष्ट को सह लेता है और कोई अनुचित कार्य नहीं करता है जिसके लिये कामासक्त चित्त उसको उत्तेजित करता है, वही यथार्थ सुख का लाभ वर्तमान और भविष्यत् में पाता है । लिखा है
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" सन्तोषपुष्टमनसं भृत्या इव महर्द्धयः । राजानमुपतिष्ठन्ति किङ्करत्वमुपागताः" ||
सन्तोष के बल से पुष्ट- मनवाले की सेवा बड़े बड़े ऐश्वर्य ऐसे करते हैं जैसे कि राजा की सेवा नौकर करता है। जो ज्ञान के बल से धैर्य से कष्ट को सहता है उसके वर्तमान कष्ट का भी ह्रास हो जाता है, क्योंकि वह परीक्षा में सफल हुआ जिसके लिये यथार्थ में क्लेश आते हैं } कष्ट में पड़ने से, धैर्य और ज्ञान के कारण, सज्जनों के सद्गुण प्रकट होकर 'उनके महत्त्व को प्रकाशित करते हैं और उनकी आन्तरिक शक्ति बढ़ती है, जैसा कि आग में पड़ने से सोना विशेष उज्ज्वल
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