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शौच
बाह्य और आन्तरिक दोनों शौच करना चाहिए। यदि बाहर खूब सुथरा, चिकना और धोया हुआ है किन्तु भीतर मन मैला है, तो बाहरी शुद्धता किसी काम की नहीं। बाह्यशौच के निमित्त स्नान, आचमन, मार्जनादि कर्म करना श्रावश्यक है। शास्त्र में शौच के विशेष वर्णन हैं और भोजनादि में शुद्धाशुद्ध का विचार और आवश्यक स्पर्शास्पर्श भी शौच के अन्तर्गत हैं। प्रातरुत्थान, मल-मूत्र का निवासस्थान से ( यथासम्भव ) दूर में त्याग, इनके वेग को न रोकना, अच्छे प्रकार से कुछ समय तक दन्तकाष्ठ द्वारा दाँतों को स्वच्छ करना, प्रातः स्नान अथवा अन्य समय में स्नान आदि द्वारा शरीर को स्वच्छ रखना, उत्तम मिट्टी, भस्म आदि को मलकर शरीर को स्वच्छ और शुद्ध करना, मकान और उसके आसपास के स्थान को लीपने, पोतने, बुहारी देने आदि से और वायु और सूर्य के प्रकाश के प्रवेश द्वारा स्वच्छ और पवित्र रखना, और वहाँ मैला कुचैला नहीं रहने देना, बस्त्र भी स्वच्छ रखना, स्वच्छ और पवित्र जल का पान करना, शुद्ध वायु, और केवल प्रातःकाल सूर्य के प्रकाश का ( मस्तक छोड़कर ) सेवन फरना, केवल आवश्यक निद्रा का सेवन ( अधिक भी नहीं कम भी नहीं ) आदि सब शौच के अन्तर्गत हैं और आरोग्यता के लिये, जो धर्मार्थ प्रादि चतुर्वर्ग का मूल है, आवश्यक हैं। यह शौच-धर्म कदापि उपेक्षा योग्य नहीं है, क्योंकि शरीर अपवित्र होने से मन भी अपवित्र हो जाता है, क्योंकि