Book Title: Dharm Karm Rahasya
Author(s): Indian Press Prayag
Publisher: Indian Press

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Page 170
________________ १५४ धर्म-कर्म-रहस्य हो फल है, अतएव वह भी फलीभूत कर्म द्वारा ही होता है और विशेष क्रियमाण कर्म द्वारा इसका ह्रास भी होता है किन्तु एकदम नाश नहीं हो सकता। याज्ञवल्क्यसंहिता का वचन है विपाकः कर्मणां प्रेत्य केपाश्चिदिह जायते । इह चामुत्र वै तेषां भावस्तत्र प्रयोजनम् ॥ १३३ ॥ किसी कर्म का फल यहाँ प्रकट होता है और किसी का . वहाँ और मरने के बाद, इसमें भावना ही मुख्य है। उत्तम कर्म के फल मिलने में देव (प्रारब्ध ) और पुरुषार्थ (वर्तमान क्रियमाण ) दोनों प्रधान हैं। एक के विना दूसरा. व्यर्थ है। कर्म-फल मिलने का उद्देश्य प्रारब्ध कर्म का क्षय करवाकर जीवात्मा को उससे धर्माधर्म के ज्ञान का अन्तरात्मा में संस्कार उत्पन्न करवाना है जिससे उसका उपकार होता है, जैसा कि पूर्व के प्रकरण में दिखलाया है। अतएव पुत्वार्थ द्वारा कर्मक्षय और ज्ञान की प्राप्ति में शीघ्रता सम्पादन करना, जो उचित उपाय करने से होगा, कर्म के सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं है किन्तु अनुकूल है। इसलिये कष्ट और वाधा आने पर उसके मिटाने के लिये उचित धर्मानुकूल यत्न करना परमावश्यक है। योगवाशिष्ठ के अनेक स्थलों में लिखा है कि पूर्व जन्म का अपना किया हुआ कर्म ही दैव है। मत्स्य-पुराण के १६५ अध्याय में लिखा है कि पूर्व जन्मों के किये हुए कमाँ के संस्कार

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