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इन्द्रिय-निग्रह इन्द्रियाणां तु सर्वेषां यद्य के क्षरतीन्द्रियम् । तेनास्य क्षरति प्रज्ञा दृतेः पात्रादिवोदकम् ॥१९॥
मनुस्मृति, अध्याय २ सब इन्द्रियों में से यदि एक इन्द्रिय भी कुत्सित विषयों में संलग्न हो जाय तो उसके द्वारा बुद्धि नष्ट हो जाती है जैसे चर्म के जलपात्र में छिद्र रहने से जल गिर जाता ।
इन्द्रिय-निग्रह से यह तात्पर्य नहीं है कि इन्द्रियों से कोई काम न लिया जाय; किन्तु उनको ऐसा परिमार्जित कर वश में कर लेना चाहिए कि वे कभी कलुषित विषय-भोग की वान्छा न करें और न उसमें प्रयुक्त कर सकें अथवा विषयभोग-निमित्त दुष्ट कर्म न करवा सकें। इन्द्रियों को सदा उत्तम, आवश्यक और कर्तव्य कर्म के करने में प्रयुक्त करना चाहिए। क्योंकि
इन्द्रियार्थेषु सर्वेषु न प्रसज्येत कामतः । अतिप्रसक्ति चैतेषां मनसा संनिवत्त' येत् ॥ १६ ॥
मनुस्मृति, अध्याय २ भोग-कामना की इच्छा से इन्द्रियों के विषयों में नहीं पड़ना चाहिए। यदि उसमें कामासक्ति हो जाय तो मन को रोककर उस आसक्ति को त्यागना चाहिए। इन्द्रियजित् का लक्षण है