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धर्म-कर्म-रहस्य कर्म करते हैं वे सब प्रथम चित्त में अङ्कित होते हैं और फिर भुवोकं ( यह लोक इस भूलोक से उच्च, सूक्ष्म और अदृश्य है) में भी चित्रित होते हैं अर्थात् वहाँ इनका चित्र बनता है। लिखा है--
काशमानं महद्दिव्यमाकाशे समुपस्थितम् । विचारयन् चित्रगुप्तो मनुष्याणां यथाविधि ॥ २७ ॥ यत्कर्म कुरुते कश्चित् तत्सर्वं लिखति सदा ॥ ३२ ॥
गरुड़ पुराण, अ० २१ चित्रगुप्त विस्तृत दिव्य आकाश में ऊपर रहकर मनुष्यों के कर्म को ठीक-ठीक विचारते हैं। जो व्यक्ति जो कुछ कर्म करता है वह सदा लिखा जाता है। इसका भाव यह है कि सम्पूर्ण भुवर्लोक चित्रगुप्त का खाता है और उसमें जो कर्म के चित्र बनते हैं, जो हम लोगों के लिये गुप्त अर्थात् अदृश्य हैं, वही चित्रगुप्त द्वारा कर्म का लिखा जाना है। इस चित्रणकार्य के अधिष्ठाता यम है, इसी लिये उनका नाम चित्रगुप्त यम है। प्रलय तक यह चिन वर्तमान रहता है।
शाख में लिखा है; देवता लोग इन्द्रियों के अधिष्ठाता हैंअर्थात् शक्ति देनेवाले हैं जिसके कारण मनुष्य इन्द्रियों के द्वारा जो भोग करता है उसका रस (सुख) समान स्वभाववाले इन देवताओं को भी मिलता है। इनके अधीन अनेक गय अर्थात् क्षुद्र देवता होते हैं और वे भी उस रस को पाते हैं।