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धर्म-कर्म-रहत्य सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः। स्मृतिलब्धे सर्वग्रन्धीनां विप्रमोक्षः" । शुद्ध आहार के भोजन से अन्तर में भावना आदि की शुद्धि होती है जिसके होने से स्मृति की निश्चलता प्राप्त होती है और उसके कारण दोषों की प्रन्धियाँ टूटती हैं।
गीता के १८ वें अध्याय के श्लोक ८ से ११ तक में इन तीनों प्रकार के भोजनों का विचार है और वहाँ राजसिक भोजन को दुःख, शोक और रोग का कारण कहा है। आर्यशास्त्र में भोजन-विचार धर्म का मुख्य भाग है, क्योंकि भोजन पर शरीर और मन दोनों की आरोग्यता और स्वस्थता निर्भर है और ये दोनों धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के सम्पादन की मुख्य सामग्री हैं। अरवा चावल, गेहूँ, जव, तिल, मूंग, अरहर
आदि अन्न, दुग्ध, घी, तक्र, मधु आदि रस, सब प्रकार के सुपच फल, सिंघाड़ा, मखाना, मुनक्का, किसमिस, अक्षौर, छोहारा
आदि सूखे फल, परवल, केला, पपीता, भिण्डी, तराई, घोउरा, झिगुनी, नेनुआ, लौकी, श्वेत कूष्माण्ड (पेठा) आदि तरकारियाँ, परवल के पत्ते, पुदीना, वथुत्रा (वास्तुक), चौलाई, गदहपूरैना ( पुनर्नवा )शाक आदि साविक आहार हैं। लालमिर्च, सव प्रकार के गर्म मसाले, आमलकी
और कागजी नीबू के सिवा अन्य अम्ल पदार्थ, सोंठ और पीपर के सिवा कटु पदार्थ, अधिक परिमाण में ऊख के विकार गुड़ चीनी आदि का व्यवहार, गर्म पदार्थ, अधिक नमकीन, तीखा, रूंखा, दाह करनेवाला, मत्स्य, मांस, अण्डा